उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बात बढ़ाने से कोई लाभ नहीं। इस प्रश्न का मैंने फिर कुछ उत्तर ही नहीं दिया। आनन्द ने ऐसा समझ लिया कि जिरह में उन्होंने मेरा एकदम मुँह बन्द कर दिया। इसी से, स्निग्ध मृदु मुसकराहट के साथ कुछ देर तक आत्म-गौरव अनुभव करके वे बोले, “आपके लिए रथ तैयार है, मैं समझता हूँ शाम के पहले ही घर पहुँच जाँयगे। चलिए, आपको विदा कर आऊँ।”
मैंने कहा, “पर घर जाने से पहले मुझे जरा कुलियों की खबर लेने जाना है।”
आनन्द ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, “इसके मानी- अभी गुस्सा उतरा नहीं है। पर मैं तो कहूँगा कि दैव के चक्कर से दुर्भोग जो भाग्य में बदा था वह तो फल चुका। आप डॉक्टर भी नहीं, साधु-बाबा भी नहीं, गृहस्थ आदमी हैं। अब, सचमुच ही अगर खबर लेने लायक कोई बात रह गयी हो, तो उसका भार मुझ पर सौंपकर आप निश्चिन्त मन से घर चले जाइए। पर जाते ही मेरा नमस्कार जताकर कहिएगा कि उनका आनन्द अच्छी तरह है।”
दरवाजे पर बैलगाड़ी तैयार थी। गृहस्वामी चक्रवर्ती महाशय ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया कि फिर कभी इधर आना हो तो इस घर में पद-धूलि जरूर पड़नी चाहिए। उनके आन्तरिक आतिथ्य के लिए मैंने सहस्र धन्यवाद दिया; परन्तु दुर्लभ पद-धूलि की आशा न दे सका। मुझे बंगाल प्रान्त शीघ्र ही छोड़ जाना होगा, इस बात को मैं भीतर ही भीतर महसूस कर रहा था; लिहाजा किसी दिन किसी भी कारण से इस प्रान्त में वापस आने की सम्भावना मेरे लिए बहुत दूर चली गयी थी।
गाड़ी में बैठ जाने पर आनन्द ने भीतर को मुँह बढ़ाकर धीरे से कहा, “भाई साहब, इधर की आब-हवा आपको माफिक नहीं आती। मेरी तरफ से आप जीजी से कहिएगा कि पछाँह के आदमी ठहरे आप, आपको वे वहीं ले जाँय।”
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