उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इस तरह कितना समय बीत गया, मुझे होश नहीं। सहसा नाले में गाड़ी रुक जाने से उसके धक्कों-दचकों से मैं उठकर बैठ गया। सामने को टाट का परदा उठाकर देखा कि शाम हो आई है। गाड़ी चलाने वाला लड़का-सा ही है, उमर शायद चौदह-पन्द्रह साल से ज्यादा न होगी। मैंने कहा, “और तू इतनी जगह रहते नाले में क्यों आ पड़ा?”
लड़के ने अपनी गँवई गाँव की बोली में उसी वक्त जवाब दिया, “मैं क्यों पड़ने लगा, बैल अपने आप ही उतर पड़े हैं।”
“अपने आप ही कैसे उतर पड़े रे? तू बैल सँभालना भी नहीं जानता?”
'नहीं। बैल जो नये हैं।”
“बहुत ठीक! पर इधर तो अंधेरा हुआ जा रहा है, गंगामाटी है कितनी दूर यहाँ से?”
“सो मैं क्या जानूँ! गंगामाटी मैं कभी गया थोड़े ही हूँ!”
मैंने कहा, “कभी अगर गया ही नहीं, तो मुझ पर ही इतना प्रसन्न क्यों हुआ भई? किसी से पूछ क्यों नहीं लेता रे- मालूम तो हो, कितनी दूर है।”
उसने जवाब में कहा, “इधर आदमी हैं कहाँ? कोई नहीं है।”
लड़के में और चाहे जो दोष हो, पर जवाब उसके जैसे संक्षिप्त वैसे ही प्रांजल हैं, इसमें कोई शक नहीं।
मैंने पूछा, “तू गंगामाटी का रास्ता तो जानता है?”
वैसा ही स्पष्ट जवाब दिया। बोला, “नहीं!”
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