उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मुझे नीरव देखकर आनन्द ने उसी तरह हँसते हुए कहा, “अच्छी बात है, नये तौर से न कहिए तो भी कोई हर्ज नहीं, मेरे पास पुराने निमन्त्रण की पूँजी मौजूद है, मैं उसी के बल-बूते पर हाजिर हो सकूँगा।”
मैंने पूछा, “मगर यह काम कब तक हो सकेगा?”
आनन्द ने हँसते हुए कहा, “डरो मत भाई साहब, आप लोगों के गुस्सा उतरने के पहले ही पहुँचकर मैं आपको तंग न करूँगा- उसके बाद ही पहुँचूगा।”
सुनकर मैं चुप हो रहा। गुस्सा होकर नहीं आया, यह कहने की भी इच्छा न हुई।
रास्ता कम नहीं था, गाड़ीवान जल्दी कर रहा था। गाड़ी हाँकने से पहले फिर उन्होंने एक बार नमस्कार किया और मुँह हटा लिया।
इस तरफ गाड़ी वगैरह का चलन नहीं और इसीलिए उसके लिए किसी ने रास्ता बनाकर भी नहीं रक्खा। बैलगाड़ी, मैदान और खाली खेतों में होकर, ऊबड़-खाबड़ ऊसर को पार करती हुई अपना रास्ता तय करने लगी। भीतर अधलेटी हालत में पड़े-पड़े मेरे कानों में आनन्द संन्यासी की बातें ही गूँजने लगीं। गुस्सा होकर मैं नहीं आया- और यह कोई लाभ की चीज नहीं और लोभ की भी नहीं; परन्तु, बराबर खयाल होने लगा, कहीं यह भी अगर सच होता? किन्तु सच नहीं, और सच होने का कोई रास्ता ही नहीं। मन ही मन कहने लगा, गुस्सा मैं किस पर करूँगा? और किसलिए? उसने कुसूर क्या किया है? झरने की जलधारा के अधिकार के बारे में झगड़ा हो सकता है, किन्तु उत्स-मुख में ही अगर पानी खत्म हो गया हो, तो सूखे जल-मार्ग के विरुद्ध सिर धुन के जान दे दूँ किस बहाने?
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