उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
अध्यवसाय से बहुत कुछ हो सकता है। परन्तु उसकी भी एक हद है। हाथ-मुँह धोने का भी अवसर न मिला, सब बाहर निकल गया! मारे डर के मेरी सिट्टी गुम हो गयी; क्योंकि, उसे मुझे ही साफ करना पड़ेगा, इसमें तो कोई शक नहीं। मगर उतनी ताकत भी अब न रह गयी। आँखों की दृष्टि धुँधली हो आयी। किसी तरह मैं इतना कह सका, “चार-छह मिनट में अपने को सँभाले लेता हूँ, फिर सब साफ कर दूँगा।”
सोचा था कि जवाब में न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा। मगर आश्चर्य है कि उस महिला का भयानक कण्ठ-स्वर अकस्मात् ही कोमल हो गया। वे अंधेरे में से निकलकर मेरे सामने आ गयीं। बोलीं, “तुम क्यों साफ करोगे बेटा, मैं ही सब किये देती हूँ। बाहर के बिछौना तो अभी कर नहीं पाई, तब तक चलो तुम, मेरी ही कोठरी में चलकर लेट रहो।”
'ना' कहने का सामर्थ्य मुझमें न था। इसलिए, चुपचाप उनके पीछे पीछे जाकर, उन्हीं की शतछिन्न शय्या पर आँख मींचकर पड़ रहा।
बहुत अबेर में जब नींद खुली, तब ऐसे जोर से बुखार चढ़ रहा था कि मुझमें सिर उठाने की भी शक्ति न थी। सहज में मेरी आँखों से आँसू नहीं गिरते, पर आज, यह सोचकर कि इतने बड़े अपराध की अब किस तरह जवाबदेही करूँगा, खालिस और निरवछिन्न आतंक से ही मेरी आँखें भर आयीं। मालूम हुआ कि बहुत बार बहुत-सी निरुद्देश यात्राएँ मैंने की हैं, परन्तु इतनी बड़ी विडम्बना जगदीश्वर ने और कभी मेरे भाग्य में नहीं लिखी। और फिर एक बार मैंने जी-जान से उठने की कोशिश की, किन्तु किसी तरह सिर सीधा न कर सका और अन्त में आँख मींचकर पड़ रहा।
आज चक्रवर्ती-गृहिणी से रू-ब-रू बातचीत हुई। शायद अत्यन्त दु:ख में से ही नारियों का सच्चा और गहरा परिचय मिला करता है। उन्हें पहिचान लेने की ऐसी कसौटी भी और कुछ नहीं हो सकती, और पुरुष के पास उनका हृदय जीतने के लिए इतना बड़ा अस्त्र भी और कोई नहीं होगा।
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