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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


मेरे बिछौने के पास आकर वे बोलीं, “नींद खुली बेटा?”

मैंने आँखें खोलकर देखा। उनकी उमर शायद चालीस के लगभग होगी- कुछ ज्यादा भी हो सकती है। रंग काला है, पर नाक-आँख साधारण भद्र-गृहस्थ-घर की स्त्रियों के समान ही हैं, कहीं भी कुछ रूखापन नहीं, कुछ है तो सिर्फ सर्वांगव्यापी गम्भीर दारिद्य और अनशन के चिह्न-दृष्टि पड़ते ही यह बात मालूम हो जाती है।

उन्होंने फिर पूछा, “अंधेरे में दिखाई नहीं देता बेटा, पर, मेरा बड़ा लड़का जीता रहता तो तुम-सा ही बड़ा होता।”

इसका क्या उत्तर दूँ? उन्होंने चट से मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा, “बुखार तो अब भी खूब है।”

मैंने आँखें मींच ली थीं। आँखें मींचे ही मींचे कहा, “कोई जरा सहारा दे दे, तो शायद, अस्पताल तक पहुँच जाऊँगा- कोई ज्यादा दूर थोड़े ही है।”

मैं उनका चेहरा तो न देख सका, पर इतना तो समझ गया कि मेरी बात से उनका कण्ठस्वर मानो वेदना से भर आया। बोलीं, “दु:ख की जलन से कल कई एक बातें मुँह से निकल गयी हैं, इसी से, बेटा, गुस्सा होकर उस जमपुरी में जाना चाहते हो? और तुम जाना भी चाहोगे तो मैं जाने कब दूँगी?” इतना कहकर वे कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं, फिर धीरे से बोलीं, “रोगी से नियम नहीं बनता बेटा, देखो न, जो लोग अस्पताल में जाकर रहते हैं, उन्हें वहाँ किस-किसका छुआ हुआ नहीं खाना पड़ता है, बताओ? पर उससे जात थोड़े ही जाती है। मैं साबू बार्ली बनाकर दूँ, तो तुम न खाओगे?”

मैंने गरदन हिलाकर जताया कि इसमें मुझे रंचमात्र भी आपत्ति नहीं और सिर्फ बीमार हूँ इसलिए नहीं, अत्यन्त निरोग अवस्था में भी मुझे इससे कोई परहेज नहीं।

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