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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी ने जब नि:शब्द पैर रखते हुए घर में प्रवेश किया तब शायद दस बज चुके थे। रोशनी कम करके, बहुत ही सावधानी से मेरी मशहरी खींचकर वह अपनी शय्या पर सोने जा रही थी कि मैंने कहा, “तुम्हारा ब्रह्मभोज तो संध्या के पहले ही समाप्त हो गया था; फिर इतनी रात कैसे हो गयी?”

राजलक्ष्मी पहले चौंकी, फिर हँसकर बोली, “मेरी तकदीर! मैं तो डरती-डरती आ रही हूँ कि तुम्हारी नींद न टूट जाय, परन्तु तुम तो अब तक जाग रहे हो, नींद नहीं आई?”

“तुम्हारी आशा से ही जाग रहा हूँ।”

“मेरी आशा से? तो बुलवा क्यों न लिया?” यह कहकर वह पास आई और मसहरी का एक किनारा उठाकर मेरी शय्या के सिरहाने बैठ गयी। फिर हमेशा के अभ्यास के अनुसार मेरे बालों में उसने अपने दोनों हाथों की दसों अंगुलियाँ डालते हुए कहा, “मुझे बुलवा क्यों न लिया?”

“बुलाने से क्या तुम आतीं? तुम्हें कितना काम रहता है!”

“रहे काम! तुम्हारे बुलाने पर 'ना' कह सकूँ यह मेरे वश की बात है?”

इसका कोई उत्तर न था। जानता हूँ, सचमुच ही मेरे आह्नान की परवा न करने की शक्ति उसमें नहीं है। किन्तु, आज इस सत्य को भी सत्य समझने की शक्ति मुझमें कहाँ है?

राजलक्ष्मी ने कहा, “चुप क्यों हो रहे?”

“सोच रहा हूँ।”

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