उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“सोच रहे हो? क्या सोच रहे हो?” यह कहकर उसने धीरे से मेरे कपाल पर अपना मस्तक झुकाकर आहिस्ते से कहा, “मुझ पर गुस्सा होकर घर से चले गये थे?”
“तुमने यह कैसे जाना कि गुस्सा होकर चला गया था?”
राजलक्ष्मी ने मस्तक नहीं उठाया, आहिस्ते से कहा, “यदि मैं गुस्सा होकर चली जाऊँ तो क्या तुम नहीं जान पाओगे?”
बोला, “शायद जान लूँगा।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम 'शायद' जान पाओ, परन्तु मैं तो निश्चयपूर्वक जान सकती हूँ और तुम्हारे जानने की अपेक्षा बहुत ज्यादा जान सकती हूँ।”
मैंने हँसकर कहा, “ऐसा ही होगा। इस विवाद में तुम्हें हराकर मैं विजयी नहीं होना चाहता लक्ष्मी, स्वयं हार जाने की अपेक्षा तुम्हारे हारने से मेरी बहुत अधिक हानि है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “यदि जानते हो तो फिर कहते क्यों हो?”
मैं बोला, “कहाँ कहता हूँ! कहना तो बहुत दिनों से बन्द कर दिया है, यह बात शायद तुम्हें मालूम नहीं।”
राजलक्ष्मी चुप हो रही। पहले होता तो राजलक्ष्मी मुझे सहज में न छोड़ती- हजारों प्रश्न करके इसकी कैफियत तलब करके ही मानती, किन्तु इस समय वह मौन-मुख से स्तब्ध ही रही। कुछ समय बाद मुँह उठाकर उसने दूसरी बात छेड़ दी। पूछा, “तुम्हें क्या इस बीच ज्वर आ गया था? घर पर मुझे खबर क्यों न भेजी?”
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