उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी बोली, “इसी की तो मुझे सबसे बड़ी जलन है। अच्छा, अब जो धर्म को सहन हो वही करो। चाय बिल्कुल ठण्डी हो गयी। मैं तब तक एक बार रसोईघर का चक्क़र लगा आऊँ।”
यह कहकर राजलक्ष्मी कमरे के बाहर हो गयी।
वज्रानन्द ने पूछा, “बर्मा जाने का विचार क्या अब भी है भाई साहब? लेकिन बहिन साथ हर्गिज नहीं जाँयगी, यह मुझसे कह चुकी हैं।”
“यह मैं जानता हूँ।”
“तो फिर?”
“तब अकेले ही जाना होगा।”
वज्रानन्द ने कहा, “देखिए, यह आपका अन्याय है। आप लोगों को पैसा कमाने की जरूरत तो है नहीं, फिर क्यों जाँयगे दूसरे की गुलामी करने?”
“कम से कम उसका अभ्यास बनाये रखने के लिए!”
“यह तो गुस्से की बात हुई भाई।”
“पर गुस्से के सिवाय क्या मनुष्य के लिए और कोई कारण नहीं होता आनन्द?”
आनन्द बोला, “हो भी, तो वह दूसरे के लिए समझना कठिन है।”
इच्छा तो हुई कि कहूँ, “यह कठिन काम दूसरे करें ही क्यों”, पर वाद-विवाद से चीज पीछे कड़वी हो जाती है, इस आशंका से चुप हो गया।
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