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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


इसी समय बाहर का काम निबटाकर राजलक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया। इस बार वह खड़ी न रहकर भलमनसी के साथ आनन्द के पास स्थिरतापूर्वक बैठ गयी। आनन्द ने मुझे लक्ष्य करके कहा, “बहिन, इन्होंने कहा है कि कम से कम गुलामी का अभ्यास बनाये रखने के लिए इन्हें विदेश जाना चाहिए। मैंने कहा कि यदि यही चाहिए तो आइए मेरे काम में योग दीजिए, विदेश न जाकर देश की गुलामी में ही दोनों भाई जिन्दगी बिता दें।”

राजलक्ष्मी बोली, “लेकिन, यह तो डॉक्टरी नहीं जानते आनन्द।”

आनन्द बोला, “क्या मैं सिर्फ डॉक्टरी ही करता हूँ? स्कूल पाठशालाएँ भी तो चलाता हूँ और उन लोगों की दुर्दशा आज कितनी ओर से और कितनी अधिक हो रही है, इसे बराबर समझाने की चेष्टा करता हूँ।”

“पर वे समझते हैं क्या?”

आनन्द ने कहा, “आसानी से नहीं समझते। किन्तु, मनुष्य की शुभ इच्छा यदि हृदय से सत्य होकर बाहर निकलती है, तो चेष्टा व्यर्थ नहीं जाती, बहिन।”

राजलक्ष्मी ने मेरी ओर तिरछी नजर से देखकर धीरे से सिर हिला दिया। मालूम होता है कि उसने विश्वास नहीं किया और वह मेरे लिए मन ही मन सशंक हो उठी। पीछे कहीं मैं भी सम्मति न दे बैठूँ, कहीं मैं भी...

आनन्द ने पूछा, “सर क्यों हिला दिया?”

राजलक्ष्मी ने पहले कुछ हँसने की चेष्टा की, फिर स्निग्ध मधुर कण्ठ से कहा, “देश की दुर्दशा कितनी बड़ी है, यह मैं भी जानती हूँ आनन्द। पर तुम्हारे अकेले की चेष्टा से क्या होगा भाई?” फिर मेरी ओर इशारा करके कहा, “और ये सहायता करने जाँयगे? तब तो हो गया, फिर तो मेरी तरह तुम्हारे दिन भी इन्हीं की सेवा में कटेंगे; और कोई काम न करना होगा।”

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