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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने न्यायशास्त्र सीखा था। धुएँ को देखकर अग्नि का निश्चय से अनुमान कर लिया; इतना ही नहीं, वरन् अग्नि के हेतु का अनुमान करते भी मुझे देर नहीं लगी। इसलिए सीधा उसी ओर चल दिया। पहले ही कह चुका हूँ कि पानी यहाँ का बहुत ही खराब है।
वाह, यही तो चाहिए था! सच्चे संन्यासी का आश्रम मिल गया! बड़ी भारी धूनी के ऊपर लोटे में चाय के लिए पानी चढ़ा है। बाबा आधी आँखें मूँदे सामने बैठे हैं, उनके आस-पास गाँजे की सामग्री रखी है। एक संन्यासी बच्चा बकरी दुह रहा है, सेवा के लिए 'चाय' चाहिए। दो ऊँट, दो टट्टू और एक बछड़ेवाली गाय, पास-पास वृक्षों की डालों से बँधे हुए हैं। पास ही में एक छोटा-सा तम्बू है। ढूँककर देखा, भीतर मेरी ही उम्र का एक चेला दोनों पैरों के बीच पत्थर का खल दबाए नीम के सोंटे से भंग तैयार कर रहा है। देखकर मैं भक्ति से सराबोर हो गया और पलक मारते ही बाबाजी के पद-तल में एकबारगी लोट गया। पद-धूलि मस्तक पर धारण कर हाथ जोड़ मन ही मन बोला, “कैसी असीम करुणा है भगवान तुम्हारी! कैसे स्थान में मुझे ले आए। चूल्हे में जाय प्यारी - मुक्ति मार्ग के इस सिंह-द्वार को छोड़कर तिलार्ध भी यदि और कहीं जाऊँ तो, मेरे लिए, अनन्त नरक में भी और जगह न रहे।”
साधुजी बोले, “क्यों बेटा?”
मैंने निवेदन किया, “मैं गृहत्यागी, मुक्तिपथान्वेषी हतभाग्य शिशु हूँ; मुझ पर दया करके अपनी चरण-सेवा का अधिकार दीजिए।”
साधुजी ने मृदु हँसी हँसकर दो दफा सिर हिलाकर संक्षेप में कहा, “बेटा, घर लौट जा, यह पथ अति दुर्गम है।”
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