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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने करुण कण्ठ से उसी क्षण उत्तर दिया, “बाबा, महाभारत में लिखा है, महापापिष्ठ जगाई और मधाई वसिष्ठ मुनि के चरण पकड़कर स्वर्ग चले गये, तो क्या मैं आपके पैर पकड़कर मुक्ति भी नहीं पाऊँगा?।”
साधुजी प्रसन्न होकर बोले, “बात तेरा सच्चा हय। अच्छा बेटा, रामजी की खुशी।” जो दूध दुह रहा था उसने आकर चाय तैयार करके बाबाजी को दी। उसकी 'सेवा' हो गयी, हम लोगों ने प्रसाद पाया।
भाँग तैयार हो रही थी संध्याकाल के लिए। परन्तु उस समय भी बेला बाकी थी इसलिए और तरह के आनन्द का उद्योग करते हुए 'बाबा ने अपने दूसरे चेले को गाँजे की चिलम इशारे से दिखा दी तथा उसे भरने में देर न हो इसके लिए विशेष 'उपदेश' दे दिया।
आधा घण्टा बीत गया। सर्वदर्शी बाबाजी मेरे प्रति परम सन्तुष्ट होकर बोले, “हाँ बेटा, तुममें अनेक गुण हैं। तुम मेरे चेला होने के अति उपयुक्त पात्र हो।
मैंने, परम आनन्द के साथ, और एक दफा बाबा के चरणों की धूलि मस्तक पर धारण कर ली।
दूसरे दिन मैं प्रात:स्नान करके आया। देखा कि गुरुजी के आशीर्वाद से अभाव किसी चीज का नहीं है। प्रधान चेला जो थे उन्होंने, एक नया टटका गेरुए कपड़ों का सूट, दस जोड़ी छोटी बड़ी रुद्राक्ष की मालाएँ और एक जोड़ा पीतल के कड़े बाहर निकाल दिये। जहाँ जो वस्तु धारण करने की थी उसे उस स्थान पर सजाकर, थोड़ी-सी धूनी की राख मस्तक पर और मुँह पर मल ली। आँखें मींचकर मैंने कहा, “बाबाजी, शीशा-वीसा कुछ है? एक दफा मुँह देखने की प्रबल इच्छा हो रही है।” मैंने देखा कि उन्हें भी रस का ज्ञान है। फिर भी उन्होंने कुछ गम्भीर होकर उपेक्षा से कहा, “है एक ठो।”
“तो फिर, छुपाकर ले न आइए एक दफा।”
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