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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
गहरे वैराग्य और कठोर साधना के लिए, महाराज के आदेश में, हम लोगों की सेवा की व्यवस्था कुछ कठोर किस्म की थी। परिणाम में वह जैसी थी स्वाद में भी वैसी ही थी। चाय, रोटी, घी, दूध, दही, चिवड़ा, शक्कर इत्यादि कठोर सात्विक भोजन और उन्हें पचाने के अनुपान। भगवत्पादार्विदों से हमारा चित्त विक्षिप्त न हो, इस ओर भी हम लोगों की लेशमात्र लापरवाही नहीं थी। इसके फलस्वरूप मेरे सूखे काठ में फूल लग गये और कुछ तोंद बढ़ने के लक्षण भी दिखाई देने लगे।
एक काम था- भिक्षा के लिए बाहर जाना संन्यासी के लिए सर्वप्रधान कार्य न होने पर भी प्रधान कार्य था! क्योंकि सात्विक भोजन के साथ इसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। किन्तु महाराज स्वयं यह नहीं करते थे, उनके सेवक ही पारी-पारी से किया करते थे। संन्यासी के अन्य दूसरे कर्त्तव्यों में तो उनके दूसरे दो चेलों को मैं बहुत जल्द लाँघ गया; परन्तु केवल इस काम में बराबर लँगड़ाता रहा! इसे किसी दिन भी अपने लिए सहज और रुचिकर न बना सका। फिर भी, एक सुभीता यह था कि वह हिन्दुस्तानियों का देश था। मैं भले-बुरे की बात नहीं कहता - मैं सिर्फ यही कहता हूँ कि बंगाल देश की नाईं वहाँ की औरतें 'बाबा हाथ जोड़ती हूँ, और एक घर आगे जाकर देखो' कहकर उपदेश नहीं देतीं; और पुरुष भी 'नौकरी न करके तुम भिक्षा क्यों माँगते हो?' यह कैफियत तलब नहीं करते। धनी-निर्धन, बिना किसी भेदभाव के सब ही, प्रत्येक घर से, भिक्षा देते हैं - कोई विमुख नहीं जाता। इसी तरह दिन जाने लगे, पन्द्रह दिन तो उस आम के बाग में ही कट गये। दिन के समय तो कोई आपत-विपत नहीं थी, केवल रात्रि को मच्छरों के काटने की जलन के मारे मन ही मन लगता था कि, भाड़ में जाय मोक्ष-साधना। यदि शरीर के चमड़े को कुछ और मोटा न किया जायेगा, तो अब जान न बचेगी। अन्यान्य विषयों में बंगाली लोग चाहे जितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु बंगाली चमड़े की अपेक्षा हिन्तुस्तानी चमड़ा, इस विषय में संन्यास के लिए बहुत अधिक अनुकूल है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। उस दिन प्रात:स्नान करके सात्विक भोजन प्राप्त करने के प्रयत्न में बाहर जा ही रहा था कि गुरु महाराज ने बुलाकर कहा,
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