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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


दो मिनट के बाद आईना लेकर मैं एक वृक्ष की आड़ में चला गया। पश्चिम के नायी जिस तरह का आईना हाथ में देकर क्षौर-कर्म सम्पादित करते हैं, उसी तरह की वह छोटी सी टीन चढ़ी हुई आरसी थी। खैर जैसी भी हो, मैंने देखा कि वह विशेष तरद्दुद किये जाने और सदा व्यवहार में आने के कारण खूब साफ-सुथरी थी। चेहरा देखकर हँसे बिना न रहा गया। कौन कह सकता था कि मैं वही श्रीकान्त हूँ जो कुछ ही समय पूर्व राजे-राजवाड़ों की मजलिस में बैठकर बाईजी का गान सुना करता था? खैर, जाने दो।

मैं घण्टे-भर के बाद गुरुमहाराज के समीप दीक्षा के लिए लाया गया। महाराज चेहरा देखकर अतिशय प्रीति के साथ बोले, “बेटा, एकाध महीना ठहर जाओ।”

मैं धीरे-से 'बहुत अच्छा', कहकर उनकी पदधूलि ग्रहण करके, हाथ जोड़कर भक्ति से भरकर एक तरफ बैठ गया।

आज बातों ही बातों में उन्होंने आध्यात्मिकता के अनेक उपदेश दिये। इसकी दुरूहता के विषय में गम्भीर वैराग्य और कठोर साधना के विषय में-आजकल के भण्ड पाखण्डी लोग इसे किस तरह कलंकित करते हैं उसका विशेष विवरण तथा भगवत् के पाद-पद्मों में मति को स्थिर करने के लिए क्या-क्या करना आवश्यक है- इस काम में वृक्षजातीय शुष्क वस्तु विशेष के धुएँ को बार-बार मुख-विवर के द्वारा शोषण करके नासा-रन्ध्रं पथ से शनै:-शनै: विनिर्गत करने से कितना आश्चर्यकारी उपकार होता है- आदि सब उन्होंने अच्छी तरह समझा दिया, और इस विषय में मेरी अवस्था अत्यन्त आशाप्रद है, यह इशारे से बताकर उन्होंने मेरे उत्साह को खूब बढ़ाया! इस तरह उस दिन मोक्ष-पद के अनेक निगूढ़ तात्पर्यों को जानकर मैं, गुरु महाराज के तीसरे चेले के रूप में बहाल हो गया।

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