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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैं मन ही मन कुछ लजाकर रह गया। क्योंकि, सामने कोई न था तो भी, पास के घर में से बिहारी औरतों की बातचीत सुनाई पड़ रही थी। उनमें से यदि कोई एकाएक बाहर आकर इस अवस्था में हम दोनों को देख ले, तो वह क्या सोचेगी, क्या कहेगी यह कुछ भी मैं न सोच सका। खड़ा रहूँ, या प्रस्थान कर जाऊँ, यह निश्चय कर सकने के पूर्व ही उस लड़की ने रोते-रोते एक साँस में ही हजार प्रश्न पूछ डाले, “तुम कहाँ से आ रहे हो? कहाँ रहते हो? तुम्हारा घर क्या वर्ध्दमान जिले में है? तुम वहाँ कब जाओगे? तुम्हें क्या राजापुर मालूम है? वहाँ के गौरी तिवारी को चीन्हते हो?”
मैं बोला, “तुम्हारा घर क्या वर्ध्दमान जिले के राजापुर में है?”
उस लड़की ने हाथों से आँखों का जल पोंछते हुए कहा, “हाँ, मेरे पिता का नाम गौरी तिवारी है और भाई का नाम रामलाल तिवारी है। उन्हें क्या तुम चीन्हते हो? तीन महीने हुए मैं ससुराल आईं हूँ, अभी तक एक भी चिट्ठी मुझे नहीं मिली- पिता, भाई, माँ गिरिबाला और बाबू कैसे हैं, कुछ भी नहीं जानती। वह जो पीपल का वृक्ष है- उसके नीचे मेरी बहिन की ससुराल का मकान है। उस सोमवार को जीजी गले में फाँसी लगाकर मर गयी - पर वे लोग कहते हैं कि - नहीं, वे हैजे से मरी हैं।”
मैं विस्मय के मारे हतबुद्धि-सा हो गया। यह क्या बात है? ये लोग, देखता हूँ कि पूरे हिन्दुस्तानी हैं; परन्तु, लड़की एकबारगी शुद्ध बंगालिन है। इतनी दूर, इन घरों में, इन लड़कियों की ससुरालें क्योंकर हुई और इनके पति, सास-ससुर आदि यहाँ क्या करने आए!
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