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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
वह बोली, “जीजी राजापुर जाने के लिए रात-दिन रोती थीं, खाती नहीं थीं, सोती नहीं थीं। इसीलिए उनके बाल धन्नी से बाँधकर उन्हें सारे दिन और सारी रात खड़ा कर रक्खा था। इसीलिए गले में रस्सी डालकर मर गयी।”
मैंने पूछा, “तुम्हारे भी सास-ससुर क्या हिन्दुस्तानी हैं?”
उस लड़की ने फिर एक बार रोकर कहा, “हाँ। मैं उन लोगों की बातचीत कुछ भी नहीं समझ पाती, उन लोगों का खाना मैं मुँह में नहीं डाल सकती - मैं तो दिन-रात रोया करती हूँ। परन्तु, पिता न तो हमें चिट्ठी ही लिखते हैं और न लिवा ही ले जाते हैं।”
मैंने पूछा, “अच्छा, तुम्हारे पिता ने तुम्हें इतनी दूर ब्याहा ही क्यों?”
लड़की बोली, “हम लोग तिवारी जो हैं। हमारी जाति के ब्याह-योग्य लड़के उस देश में तो मिलते नहीं।”
“तुम्हें क्या वे मारते-पीटते भी हैं?”
“और नहीं तो क्या? यह देखो न!” इतना कहकर उस लड़की ने भुजाओं में, पीठ के ऊपर, मार के निशान दिखाए और फफक-फफककर रोते हुए कहा, “मैं जीजी की तरह गले में फाँसी लगाकर मर जाऊँगी।”
उसका रोना देखकर मेरे भी नेत्र सजल हो उठे और प्रश्नोत्तर या भीख की अपेक्षा किये बगैर ही मैं बाहर हो गया। किन्तु, वह लड़की मेरे पीछे-पीछे चली आई और कहने लगी, “मेरे पिता के पास जाकर तुम कहोगे न? वे मुझे यहाँ से एक दफा ले जाँय, नहीं तो मैं-” किसी तरह थोड़ा-सा सिर हिलाकर स्वीकार करके तेज चाल से अदृश्य हो गया। उस लड़की का हृदयभेदी आवेदन मेरे दोनों कानों में गूँजने लगा।
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