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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
सो तो ठीक, परन्तु खबर देने के प्रस्ताव पर मैं सोच-विचार में पड़ गया। क्यों, सो खोलकर बताने की जरूरत नहीं। परन्तु सोचा, गरीब का पैसा टेलीग्राम में अपव्यय करने से लाभ ही क्या है?
शाम के बाद वह भद्र पुरुष अपनी डयूटी से अवकाश लेकर एक घड़ा पानी और एक किरासिन की डिब्बी लेकर उपस्थित हुआ, उस समय ज्वर की यन्त्रणा से मस्तक क्रमश: बिगड़ रहा था। उसे पास में बुलाकर मैंने कहा, “जब तक मुझे होश है तब तक बीच-बीच में आकर देख जाना; इसके बाद जो होना हो सो हो, आप और कोई कष्ट न करना।”
वह अत्यन्त मुँह-चोर प्रकृति का भद्र पुरुष था। बात बनाकर कहने की उसमें क्षमता नहीं थी। जवाब में केवल 'नहीं' कहकर ही वह चुप हो रहा। मैंने कहा, “आपने चाहा था कि किसी को खबर करा दूँ। मैं संन्यासी आदमी हूँ, वास्तव में मेरा कोई भी नहीं। फिर भी पटने में प्यारी बाई के ठिकाने पर यदि एक पोस्ट कार्ड लिख दोगे कि श्रीकान्त आरा स्टेशन के बाहर एक टीनशेड के नीचे मरणापन्न होकर पड़ा है तो...”
वह युवक अत्यन्त व्यस्त होकर बोल उठा, “मैं अभी दिए देता हूँ।” चिट्ठी और टेलीग्राम दोनों ही भेजे देता हूँ”, इतना कहकर वह उठकर चला गया। मैंने मन ही मन कहा, 'भगवान, वह खबर पा जाय!'
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