|
उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
337 पाठक हैं |
||||||||
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बाहर के जिस कमरे में मैं था उसके सामने से ही इस गाँव का कच्चा रास्ता आरा स्टेशन तक गया है। इस रास्ते पर से प्रतिदिन कम से कम 5-6 बैलगाड़ियाँ, मृत्यु-भीत नर-नारियों का माल-असबाब लादकर, स्टेशन जाया करती थीं। दिन-भर अनेक प्रयत्न करने के बाद में शाम को इनमें से एक में स्थान पाकर जा बैठा। जिन वृद्ध बिहारी सज्जन ने दया करके मुझे अपने साथ ले लिया था उन्होंने बड़े तड़के ही मुझे स्टेशन के पास एक वृक्ष के नीचे उतार दिया। उस समय बैठने का भी मुझमें सामर्थ्य नहीं था। वहीं मैं लेट गया। पास में ही एक टीन का परित्यक्त शेड था। पहले वह मुसाफिरखाने के काम में आता था; किन्तु, वर्तमान समय में झड़-बादल के दिन गाय-बछड़ों के उपयोग में आने के सिवाय, और किसी काम में नहीं आता था। ये वृद्ध सज्जन स्टेशन से एक बंगाली युवक को बुला लाए। मैं उसी की दया से, कई एक कुलियों की सहायता से, उस शेड के नीचे लाया गया।
मेरा बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं उस युवक का कोई परिचय नहीं दे सकता, क्योंकि, मैं उस समय उसकी कुछ भी पूछताछ नहीं कर सका था। पाँच-छ: महीने बाद, पूछने का जब सुयोग और शक्ति मिली तब, मालूम हुआ कि शीतला के रोग से पीड़ित होकर इस बीच में ही वह इस लोक से कूच कर गया है। उसके सम्बन्ध में पूछने पर इतना ही मालूम हो सका कि वह पूर्वीय बंगाल का था और पन्द्रह रुपये महीने वेतन पर स्टेशन में नौकरी करता था। कुछ देर ठहरकर अपना सैकड़ों जगह से फटा हुआ बिछौना लाकर उसने हाजिर किया और वह बार-बार कहने लगा कि मैं अपने हाथ से पकाकर खाता हूँ और दूसरे के घर रहता हूँ। दोपहर के समय एक कटोरा गरम दूध लाकर उसने जबरन पिलाकर कहा, “डरने की बात नहीं है, आप अच्छे हो जाँयगे। परन्तु आत्मीय बन्धु-बान्धव आदि किसी को भी यदि खबर देनी हो तो, ठिकाना बताने पर, मैं तार दे सकता हूँ।”
उस समय मैं खूब होश में था। इसलिए यह भी अच्छी तरह समझा था कि ऐसी अवस्था बहुत देर तक नहीं रहेगी। इस तरह का ज्वर यदि और भी 5-6 घण्टे स्थायी बना रहा तो होश अवश्य गँवाना पड़ेगा। अतएव, जो कुछ करना है, वह इतने समय के भीतर न करने पर, फिर नहीं किया जायेगा।
|
|||||

i 









