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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
सुबह प्यारी ने कहा, “बंकू, और देरी मत कर बेटा, इसी समय एक सेकण्ड क्लास का डब्बा रिझर्व करा आ। मैं एक क्षण भी इन्हें यहाँ रखने का साहस नहीं कर सकती।”
बंकू की अतृप्त निद्रा उस समय भी उसके दोनों नेत्रों में भर रही थी; उसने उन्हें मूँदे ही मूँदे अव्यक्त स्वर में जवाब दिया, “तुम पगला गयी हो माँ ऐसी अवस्था में क्या रोगी को यहाँ से वहाँ ले जाया जा सकता है?”
प्यारी ने कुछ हँसकर कहा, “पहले तू उठ, आँख-मुँह पर जल डाल, देखूँ इसके बाद यहाँ-वहाँ ले जाने की बात समझ ली जावेगी। राजा बेटा मेरे, उठ!”
बंकू और कोई उपाय न देख, शय्या त्याग, मुँह हाथ धो, कपड़े बदल स्टेशन चला गया। उस समय भी बहुत जल्दी थी - घर में और कोई नहीं था! धीरे-धीरे पुकारा, “प्यारी!” मेरे सिरहाने की ओर एक खटिया सटकर बिछी हुई थी। उसी पर थकावट के कारण, शायद इसी बीच, वह कुछ आँखें मूँदकर लेट गयी थी। चटपट उठ बैठी और मेरे मुँह पर झुक गयी। कोमल कण्ठ से उसने पूछा, “नींद खुल गयी?”
“मैं तो जाग ही रहा हूँ।” प्यारी ने उत्कण्ठित यत्न के साथ मेरे सिर और कपाल पर हाथ फेरते-फेरते कहा, “ज्वर तो इस समय बहुत कम है। आँखें मूँद कर थोड़ा-सा सोने की चेष्टा क्यों नहीं करते?”
“सो तो मैं बराबर ही करता हूँ प्यारी, आज ज्वर को कितने दिन हुए?”
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