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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बहुत से लोगों की बहुविधा कामना-साधना की उपहार-राशि इस तरह ठसाठस एक के ऊपर एक भरी हुई नजर आती थी कि देखते ही ऐसा मालूम होता था कि इन अचेतन वस्तुओं के समान ही उनके अचेतन दाता भी मानो इस मकान के भीतर जरा-सी जगह के लिए ऐसी ही भीड़ करके परस्पर एक दूसरे के साथ ठेलमठेल संघर्ष कर रहे हैं। किन्तु, इस मकान के किसी भी कमरे में आवश्यकीय चीजों के अतिरिक्त एक भी फालतू चीज नज़र नहीं आई। और जो भी चीजें नजर आईं वे स्वयं गृहस्वामिनी के काम के लिए लाई गयी हैं, और उसकी निजी इच्छा और अभिरुचि को लाँघकर, और किसी की भी प्रलुब्ध अभिलाषा से अनधिकार-प्रवेश करके जगह छेके नहीं बैठी हैं। यह बात सहज में ही मालूम हो गयी। और भी एक बात ने मेरी दृष्टि को आकर्षित किया। इतनी सुप्रसिद्ध 'बाईजी' के घर में गाने-बजाने का कहीं कोई आयोजन भी नहीं है। इस कमरे, उस कमरे में घूमता हुआ दूसरी मंजिल के एक कोने के कमरे के सामने आकर मैं खड़ा हो गया। यह बाईजी का खुद का शयन-मन्दिर है, यह उसके भीतर झाँकते ही मालूम हो गया। परन्तु मेरी कल्पना के साथ इसका कितना अन्तर था। जो कुछ सोच रक्खा था, उसमें का कुछ भी नहीं था। मेज सफेद पत्थर की थी, दीवालें दूध की तरह सफेद चमचमा रही थीं। कमरे के एक किनारे एक छोटे से तख्त के ऊपर बिस्तर बिछे थे, एक लकड़ी की अरगनी पर कुछ वस्त्र टँके थे और उसके पीछे एक लोहे की आलमारी थी। और कहीं कुछ नहीं था। जूते पहिने हुए अन्दर प्रवेश करने में भी मानो मुझे एक तरह के संकोच का अनुभव हुआ, उन्हें चौखट के बाहर खोलकर मैंने भीतर प्रवेश किया। मालूम होता है, थकावट के कारण ही उसकी शय्या पर मैं जाकर बैठ गया था। यदि कमरे में और कोई वस्तु बैठने के लिए होती तो मैं उसी पर बैठता। सामने की ओर खुली हुई खिड़की को ढँके हुए एक बड़ा नीम का पेड़ था। उसी में से छन-छनकर हवा आ रही थी। उस ओर देखता हुआ मैं हठात् जैसे कुछ अन्यमनस्क-सा हो गया था। एक मीठी आवाज से चौंककर मैंने देखा, गुन-गुन गाना गाती-गाती प्यारी कमरे में घुस आई है। वह गंगाजी में स्नान करने गयी थी और अब वहाँ से लौटकर अपने कमरे में गीले कपड़े उतारने आई है। उसने इस ओर एक दफा भी नहीं देखा है। उसके सीधे अरगनी के पास जाकर सूखे वस्त्र पर हाथ डालते ही मैंने व्यक्त होकर आवाज दी, “घाट पर कपड़े लेकर क्यों नहीं जातीं?”
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