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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
प्यारी ने चौंककर हँस दिया। बोली, “ऐं! चोर की तरह मेरे कमरे में घुसे बैठे हो? नहीं नहीं, बैठे रहो, बैठे रहो-जाओ मत। मैं उस कमरे में से कपड़े बदल आती हूँ।” इतना कहकर वह हलके पैरों गरद की धोती हाथ में लेकर बाहर चली गयी।
पाँचेक मिनट के बाद वह प्रसन्न मुख से लौट आई और हँसकर बोली, “मेरे कमरे में तो कुछ भी नहीं है; तब क्या चुराने आए हो, बोलो तो? मुझे तो नहीं?” मैं बोला, “तुमने क्या मुझे ऐसा अकृतज्ञ समझ रक्खा है? तुमने मेरे लिए इतना किया, और अन्त में तुम्हारी ही चोरी करूँ, मैं इतना लोभी नहीं हूँ।”
प्यारी का मुँह मलीन हो गया। बोलते समय मैंने नहीं सोचा था कि इस बात से उसे व्यथा पहुँचेगी। उसे व्यथा पहुँचाने की न तो मेरी इच्छा ही थी, और न ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही था। खास तौर से तब जब कि मैंने दो-एक दिन में वहाँ से प्रस्थान करने का संकल्प कर लिया था। बिगड़ी हुई बात को किसी तरह बना लेने की गरज से मैंने जबर्दस्ती हँसकर कहा, “अपनी वस्तु की भी क्या कोई चोरी करने जाता है? तुममें इतनी भी बुद्धि नहीं है?”
किन्तु इतने सहज में उसे भुलाया न जा सका। उसने मलीन मुख से कहा, “तुम्हें और अधिक कृतज्ञ होने की जरूरत नहीं; दया करके तुमने जो उस समय खबर लगा दी, मेरे लिए वही बहुत है।”
उसके शुद्ध स्नात, प्रसन्न हँसते चेहरे को इस धूप से उज्ज्वल प्रभात-काल में ही मैंने म्लान कर दिया, यह देखकर हृदय में एक वेदना सी जाग उठी। उस थोड़ी-सी हँसी के भीतर जो एक माधुर्य था उसके नष्ट होते ही हानि सुस्पष्ट हो उठी। उसे वापिस लौटाने की आशा से मैं उसी क्षण अनुतप्त स्वर में बोल उठा, “लक्ष्मी, तुम्हारे निकट तो कुछ भी छिपा नहीं है- सब कुछ तो जानती हो। तुम वहाँ नहीं गयी होती तो मुझे उस धूल और रेती के ऊपर ही मर जाना पड़ता, कोई उतनी दूर जाकर एक दफा अस्पताल ले जाने की भी चेष्टा न करता। वह जो तुमने पत्र में लिखा था कि “सुख के दिनों में न सही तो दु:ख के दिनों में ही मुझे याद कर लेना” यह बात मुझे मेरी आयु बाकी थी इसीलिए याद आ गयी, यह मैं इस समय अच्छी तरह अनुभव कर रहा हूँ।”
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