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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
दूसरे दिन शाम के वक्त मैं अपने कमरे में पश्चिम की तरफ से बरामदे में एक इजीचेअर पर लेटा हुआ सूर्यास्त देख रहा था। इसी समय बंकू आ उपस्थित हुआ। अभी तक उसके साथ अच्छी तरह बातचीत करने का सुयोग नहीं मिला था। एक चेअर पर बैठने का इशारा करके मैं बोला, “बंकू, क्या पढ़ते हो तुम?”
लड़का अत्यन्त सीधा-सादा भलामानुस था। बोला, “गये साल मैंने एन्टे्रन्स पास किया है।”
“तो अब बाँकीपुर कॉलेज में पढ़ते हो?”
“जी हाँ।”
“तुम कितने भाई-बहिन हो?”
“भाई और नहीं हैं। चार बहिनें हैं।”
“उनका ब्याह हो गया?”
“जी हाँ, मैंने ही उन्हें ब्याह दिया है।”
“तुम्हारी अपनी माँ जीती हैं?”
“जी हाँ, वे देश के ही मकान में रहती हैं।”
“तुम्हारी ये माँ, कभी तुम्हारे देश के मकान में गयी हैं?”
“बहुत बार, अभी तो पाँच-छ: ही महीने हुए, आई हैं।”
“इससे देश में कोई गड़बड़ नहीं मचती?”
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