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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“कर रहे हो?”
“निश्चय से।”
“तो फिर कहो कि मेरे ही लिए तुमने पुन: प्राण पाए हैं?”
“इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है।”
“तो क्या मैं उन पर दावा कर सकती हूँ, बोलो?”
“कर सकती हो। परन्तु मेरे प्राण इतने तुच्छ हैं कि उन पर तुम्हारा लोभ होना ही उचित नहीं है।”
प्यारी ने इतनी देर बाद कुछ हँसकर कहा, “फिर भी गनीमत है कि अपने मूल्य को इतने दिनों में तुमने समझ तो लिया।” किन्तु दूसरे ही क्षण गम्भीर होकर कहा, “दिल्लगी रहने दो, बीमारी तो एक तरह से अच्छी हो गयी, अब जाने की कब सोच रहे हो?”
उसके प्रश्न को अच्छी तरह न समझ सका। मैंने गम्भीर होकर कहा, “कहीं जाने की तो मुझे जल्दी है नहीं। इसलिए यही सोचता हूँ, और भी कुछ दिन ठहर जाऊँ।”
प्यारी बोली, “किन्तु मेरा लड़का आजकल अक्सर बाँकीपुर से आया करता है। बहुत दिन ठहारोगे तो शायद वह कुछ खयाल करने लगे।”
मैंने कहा, “करने दो न। उससे डरकर तो कुछ तुम चलती नहीं? ऐसा आराम छोड़कर यहाँ से शीघ्र ही तो मैं कहीं जाता नहीं।”
प्यारी ने विषण्ण मुख से कहा, “यह भी कहीं हो सकता है?” इतना कहकर वह एकाएक वहाँ से उठकर चल दी।
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