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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने अचरज से कहा, “कहते क्या हो जी, पानी का ऐसा दारुण कष्ट भोगा करेंगे, फिर भी ऐसे पानी का व्यवहार न करेंगे?”
बंकू ने जरा-सा हँसकर कहा, “वही तो; किन्तु वह क्या अधिक समय चल सकता है? पहले साल तो डर के मारे किसी ने पानी छुआ नहीं, परन्तु अब छोटी जाति के सभी लोग लेते हैं और पीते हैं- ब्राह्मण और कायस्थ भी चैत्र-वैशाख के महीनों में लुक-छिपकर पानी ले जाते हैं- परन्तु फिर भी उन्होंने तालाब की प्रतिष्ठा नहीं करने दी। यह क्या माँ के लिए कम कष्ट की बात है?”
मैंने कहा, “अपनी नाक काट के पराया अपशकुन करने की जो कहावत सुनी जाती है, वह यही है।”
बंकू जोर से बोल उठा, “ठीक यही बात है। ऐसे गाँव में अलहदा एक घर से रहना शाप के रूप में भी वरदान के समान है। आपकी क्या राय है?” जवाब में मैंने भी केवल हँसकर सिर हिला दिया। हाँ या नहीं, कुछ स्पष्ट नहीं कहा। परन्तु इससे बंकू के उत्साह में बाधा नहीं पड़ी। मैंने देखा कि लड़का अपनी विमाता को सचमुच ही प्यार करता है। अनुकूल श्रोता पाकर भक्ति के आवेग में वह देखते-देखते पागल हो उठा और उसे लगातार के स्तुति-वाद ने मुझे करीब-करीब व्याकुल कर दिया।
हठात् एकाएक उसे होश आया कि इतनी देर में मैंने उसकी एक भी बात में योग नहीं दिया। तब वह कुछ अप्रतिभ-सा होकर किसी तरह प्रसंग को दबा देने की गरज से बोला, “आप यहाँ पर और कुछ दिन हैं न?”
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