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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


रतन बोला, “यह जानने का क्या कोई उपाय है? बड़े लोगों को गुस्सा, बाबूजी, यों ही आ जाता है और यों ही चला जाता है। उस समय यदि अपना मुँह छिपाकर न रहा जा सके, तो नौकर-चाकरों के प्राण गये समझो।” दरवाजे के समीप से एकाएक सवाल आया, “तब तुम लोगों का मैं सिर काट लेती हूँ, क्यों रतन? और फिर बड़े लोगों के घर में यदि इतनी मुसीबत है तो और कहीं क्यों नहीं चला जाता?”

मालिक के सवाल से रतन कुण्ठित हो नीचा सिर किये चुपचाप बैठा रहा। राजलक्ष्मी ने कहा, “तेरा काम क्या है? उनका सिर दर्द करता है, यह बंकू के मुँह से सुनकर मैंने तुझसे कहा। इसी से अब रात के आठ बजे यहाँ आकर मेरी बड़ाई कर रहा है। कल से कहीं और नौकरी खोज लेना, अब यहाँ काम नहीं है। समझा!”

राजलक्ष्मी के चले जाने पर रतन ओडिकोलन पानी मिलाकर मेरे सिर पर रखकर हवा करने लगा। राजलक्ष्मी उसी क्षण लौटकर पूछा, “क्या कल सुबह ही घर जाओगे?” मेरा जाने का इरादा जरूर था, परन्तु घर लौट जाने का नहीं इसीलिए सवाल का जवाब मैंने और ही तरह से दिया, “हाँ, कल सुबह ही जाऊँगा।”

“सुबह कितने बजे की गाड़ी से जाओगे?”

“सुबह ही निकल पड़ूँगा- फिर जो गाड़ी मिल जावे।”

“अच्छा। न हो तो टाइमटेबुल के लिए किसी को स्टेशन भेज देती हूँ।” इतना कहकर वह चली गयी।

इसके बाद यथासमय रतन ने काम समाप्त करके प्रस्थान किया। नीचे से नौकर-चाकरों का शब्द आना बन्द हो गया। मैं समझ गया कि सभी ने इस समय निद्रा के लिए शय्या का आश्रय ग्रहण कर लिया है।

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