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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
अन्यमनस्यक होकर उसी जगह बैठा हुआ था। संध्या के समय धूपदानी में धूप डालकर उसे अपने हाथों में लिये हुए राजलक्ष्मी उसी बरामदे में से और एक कमरे में जा रही थी कि चौंककर खड़ी हो गयी और बोली, “सिरदर्द कर रहा है, ओस में बैठे हुए हो? कमरे में जाओ।”
मुझे हँसी आ गयी। मैंने कहा, “अवाक् कर दिया तुमने लक्ष्मी! ओस यहाँ कहाँ है?”
राजलक्ष्मी बोली, “ओस न सही, ठण्डी हवा तो चल रही है। वही क्या अच्छी होती है?”
“नहीं, यह तुम्हारी भूल है। ठण्डी गरम कोई हवा नहीं चल रही है।” राजलक्ष्मी बोली, “मेरी तो सब भूल ही भूल है, परन्तु सिर दर्द कर रहा है यह तो मेरी भूल नहीं है- यह तो सत्य है न? कमरे में जाकर थोड़ी देर सो रहो न? रतन क्या करता है? वह क्या थोड़ा ओडिकोलन सिर में नहीं लगा सकता? इस घर के नौकर-चाकरों के समान नवाब नौकर पृथ्वी में और कहीं नहीं हैं।” इनता कहकर राजलक्ष्मी अपने काम पर चली गयी।
रतन जब घबराकर और लज्जित हो ओडिकोलन, पानी आदि लेकर हाजिर हुआ और अपनी भूल के लिए बार-बार अनुताप प्रकट करने लगा तब मुझसे हँसे बिना न रहा गया।
रतन ने इससे साहस पाकर धीरे-धीरे कहा, “इसमें मेरा दोष नहीं है बाबू, यह क्या मैं नहीं जानता? परन्तु माँ से यह कहने का उपाय ही नहीं कि जब तुम्हें गुस्सा आता है, वह झूठमूठ ही घर भर के लोगों के दोष देखने लगती हो।”
कुतूहल से मैंने पूछा, “गुस्सा क्यों हैं?”
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