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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने सब कुछ देखा और सब कुछ समझा। जो छिपे-छिपे आई थी उसे छिपे-छिपे ही जाने दिया। परन्तु इस निर्जन आधी रात को वह अपना कितना मेरे निकट छोड़ गयी। सो वह कुछ भी न जान सकी। सुबह जब नींद खुली तब बुखार चढ़ा हुआ था। आँखें और मुँह जल रहे थे, सिर इतना भारी था कि शय्या त्याग करते क्लेश मालूम हुआ। फिर भी जाना ही होगा। इस घर में मुझे अब अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं था, न जाने वह किस क्षण धोखा दे जाय। फिर भी डर मुझे अपने लिए उतना नहीं था। परन्तु राजलक्ष्मी के लिए ही मुझे राजलक्ष्मी को छोड़ जाना होगा, इसमें अब जरा-भी आनाकानी करने से काम न चलेगा।
मन-ही-मन सोचकर देखा कि उसने अपने विगत जीवन की कालिमा को बहुत कुछ धोकर साफ कर डाला है। आज अनेक लड़के बच्चे माँ-माँ कहते हुए उसे चारों ओर से घेरे खड़े है। इस भक्ति और प्रीति के आनन्द-धाम से उसे अपमान के साथ छीनकर बाहर निकाल लाऊँ? इतने बड़े प्रेम की क्या यही सार्थकता अन्त में मेरे जीवन के अध्याय में चिरकाल के लिए लिपिबद्ध हो रहेगी?
प्यारी ने कमरे में प्रवेश करके पूछा, “इस समय तबीयत कैसी है?”
मैं बोला, “ऐसी कुछ विशेष खराब नहीं है। जा सकूँगा।”
“आज न जाने से क्या न चलेगा?”
“नहीं, आज तो जाना ही चाहिए।”
“तो फिर घर पहुँचते ही खबर देना। नहीं तो हम लोगों को बहुत चिन्ता होगी।”
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