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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उसके अविचलित धैर्य को देखकर मैं मुग्ध हो गया। उसी क्षण सम्मत होकर बोला, “अच्छा, मैं घर ही जाऊँगा और पहुँचते ही तुम्हें खबर दूँगा।”
प्यारी ने कहा, “जरूर देना। मैं भी चिट्ठी लिखकर तुमसे दो-एक बातें पूछूँगी।”
जब मैं बाहर पालकी में बैठने जा रहा था तब देखा कि दूसरे मंजिल के बरामदे में प्यारी चुपचाप खड़ी है। उसकी छाती के भीतर क्या हो रहा है, सो उसका मुँह देखकर मैं न जान सका।
मुझे अपनी अन्नदा जीजी याद आ गयीं। बहुत समय पहले एक अन्तिम दिन वे भी मानो ठीक ऐसी ही गम्भीर, ऐसी ही स्तब्ध होकर खड़ी थीं। उस समय की उनकी दोनों करुण आँखों की दृष्टि को मैं आज भी नहीं भूला हूँ; परन्तु उस दृष्टि में निकवर्ती जुदाई की कितनी बड़ी व्यथा घनीभूत हो रही थी सो मैं उस समय नहीं पढ़ सका था। क्या जानूँ, आज भी उसी तरह का कुछ उन दोनों निबिड़ काली आँखों में है या नहीं।
उसाँस छोड़कर मैं पालकी में जा बैठा। देखा कि बड़ा प्रेम केवल पास ही नहीं खींचता, दूर भी ठेल देता है। छोटे-मोटे प्रेम के लिए यह साध्य ही नहीं था कि वह इस सुखैश्वर्य से भरे-पूरे स्नेह-स्वर्ग से मुझे, मंगल के लिए, कल्याण के लिए, एक डग भी आगे बढ़ाने देता। कहार पालकी लेकर स्टेशन की ओर जल्दी से चल दिये। मन-ही-मन मैं बारम्बार कहने लगा कि लक्ष्मी दु:ख मत करना। यह अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ से चल दिया। तुम्हारा ऋण इस जीवन में चुकाने की शक्ति तो मुझमें नहीं है। परन्तु जिस जीवन को तुमने दिया है, उस जीवन का दुरुपयोग करके अब मैं तुम्हारा अपमान न करूँगा - तुम से दूर रहते हुए भी मैं यह संकल्प सदा अक्षुण्ण रखूँगा।
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