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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


माँ यदि जीती होतीं तो इस चिट्ठी के लिए आज मैं उनका सिर खा जाता और उनके पैरों पर जोर से सिर पटककर अपनी ज्वाला को बुझाता, परन्तु यह रास्ता भी मेरे लिए बन्द है।

इसलिए, माँ का तो कुछ भी नहीं कर सका परन्तु, अब उनकी गंगाजल का भी कुछ कर सकता हूँ या नहीं, यह परखने के लिए मैं एक दिन रात्रि को स्टेशन पर जा पहुँचा। सारी रात ट्रेन में काटकर दूसरे दिन जब उनके गाँव के मकान पर पहुँचा तब दिन ढल गया था। गंगाजल-माँ पहले तो मुझे पहिचान न सकीं। अन्त में, परिचय पाकर इन तेरह वर्षों के बाद भी वे इस तरह रो पड़ीं जिस तरह कि माँ की मृत्यु के समय उनका कोई अपना आदमी भी आँखों के सामने उनकी मृत्यु होते देखकर, न रो सका होता।

वे बोलीं कि लोकदृष्टि से और धर्मदृष्टि से, दोनों ही तरह अब मैं तुम्हारी माता के समान हूँ और फिर दायित्व ग्रहण करने की प्रथम सीढ़ी के रूप में उन्होंने मेरी सांसारिक परिस्थिति का बारीकी से पर्यालोचन करना शुरू कर दिया। बाप कितना छोड़ गये हैं, माँ के कौन-कौन से गहने हैं और वे किसके पास हैं, मैं नौकरी क्यों नहीं करता और यदि करूँ तो अन्दाज से क्या महीना पा सकता हूँ, इत्यादि-इत्यादि। उनका मुँह देखकर खयाल हुआ कि इस आलोचना का फल उनके निकट कुछ वैसा सन्तोषजनक नहीं हुआ। वे बोलीं कि उनका एक रिश्तेदार बर्मा में नौकरी करके 'लाल' हो गया है, अर्थात् अतिशय-धनवान हो गया है। वहाँ तो राह-घाट में रुपये बिखरे पड़े हैं, केवल समेटने-भर की देर है! वहाँ पर जहाज से उतरते न उतरते ही बंगालियों को साहब लोग कन्धों पर उठा ले जाते हैं और नौकरी से लगा देते हैं। इस तरह की बहुत-सी बातें कहीं। बाद में मैंने देखा कि यह गलत धारणा केवल अकेली उन्हीं की नहीं थी। ऐसे बहुत-से लोग इस माया-मरीचिका से उन्मत्तप्राय होकर सहाय-सम्बलहीन अवस्था में वहाँ दौड़ गये हैं और मोह भंग होने के बाद उन्हें वापिस लौटाने में हम लोगों को कम क्लेश सहन नहीं करना पड़ा है। परन्तु वह बात इस समय रहने दो। गंगाजल-माँ का बर्मा-वर्णन मुझे तीर की तरह लगा। 'लाल' होने की आशा से नहीं-मेरे भीतर का जो घुमक्कड़पन कुछ दिनों से सोया हुआ था वह अपनी थकावट झाड़-पोंछकर मुहूर्त-भर में ही उठ खड़ा हुआ। जिस समुद्र को इसके पहले केवल दूर से खड़े-खड़े देखकर ही मुग्ध हो जाता था, अब उस अनन्त जलराशि को भी भेद करके मैं जा सकूँगा - इस इच्छा ने ही मुझे एकबारगी बेचैन कर दिया। तब किसी तरह एक बार छुटकारा पाना ही होगा।

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