|
उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
337 पाठक हैं |
||||||||
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मनुष्य मनुष्य से जितने प्रकार की भी जिरह कर सकता है, उनमें से किसी भी प्रकार की जिरह में गंगाजल-माँ ने मुझे नहीं छोड़ा। फिर भी, अपनी लड़की के योग्य पात्र की दृष्टि से उन्होंने मुझे रिहाई दे दी - इस विषय में मैं एक तरह से निश्चिन्त ही हो गया। परन्तु, रात्रि में भोजन के समय उनकी भूमिका का झुकाव देखकर मैं फिर उद्विग्न हो उठा। मैंने देखा, मुझे एकबारगी हाथ से जाने देने की उनकी इच्छा नहीं है। उन्होंने यह कहना शुरू किया कि यदि लड़की के भाग्य में न हो, तो धन, घर-बार, शिक्षा-दीक्षा आदि कितना ही क्यों न देखा जाय, सब कुछ निष्फल है। इस सम्बन्ध में नाम-धाम, विवरणादि के साथ बहुत-सी विश्वास योग्य नजीरें देकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित भी कर दिखाया। इतना ही नहीं, इसके विरुद्ध ऐसे भी कितने ही लोगों का नामोल्लेख किया कि जो निपट मूर्ख होते हुए भी केवल स्त्री के ही सौभाग्य के जोर पर इस समय दिन-रात रुपयों के ढेर पर बैठे रहते हैं।
मैंने विनय सहित कह दिया कि रुपये-पैसे की तरफ मेरी आसक्ति तो है, फिर भी, चौबीसों घण्टे उन पर बैठा रहूँ, यह विवेचना मुझे प्रीतिकर नहीं मालूम होती और इसके लिए स्त्री का सौभाग्य देखने का कुतूहल भी मुझे नहीं है। किन्तु इसका कोई विशेष फल नहीं हुआ। उन्हें निरस्त न कर सका। क्योंकि, जो स्त्री तेरह वर्ष के इतने लम्बे समय के पश्चात् भी एक पत्र को दस्तावेज के रूप में पेश कर सकती है, उसे इतने सहज में नहीं भुलाया जा सकता। वे बार-बार कहने लगीं कि इसे माता के ऋण के ही रूप में ग्रहण करना उचित है, और जो सन्तान समर्थ होते हुए भी मातृ-ऋण का परिशोध नहीं करती वह... इत्यादि-इत्यादि।
जब मैं बहुत ही शंकित और विचलित हो उठा, तब बातों ही बातों में मुझे मालूम हुआ कि पास के गाँव में यद्यपि एक सुपात्र है, परन्तु, पाँच सौ रुपये से कम में उसका पाना असम्भव है।
|
|||||

i 









