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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763
आईएसबीएन :9781613015001

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


यह कहते हुए पतिदेव मुस्कराये और मुझे गले से लिपटा लेने को बढ़े। उनकी यह हृदयहीनता इस समय मुझे बहुत बुरी लगी। मैंने उन्हें हाथों से पीछे हटाकर कहा, मैं इस स्वाँग को प्रेम नहीं समझती। जो कभी रो नहीं सकता वह प्रेम नहीं कर सकता। रुदन और प्रेम, दोनों एक ही ऱेत से निकलते हैं। उसी समय फिर उसी गाने की ध्वनि सुनाई दी

अनोखे-से नेही के त्याग,
निराले पीड़ा के संसार !
कहाँ होते हो अंतर्धान
लुटा करके सोने-सा प्यार !

पतिदेव की वह मुस्कराहट लुप्त हो गई। मैंने उन्हें एक बार काँपते देखा। ऐसा जान पड़ा, उन्हें रोमांच हो रहा है। सहसा उनका दाहिना हाथ उठकर उनकी छाती तक गया। उन्होंने लम्बी साँस ली और उनकी आँखों से आँसू की बूँदें निकलकर गालों पर आ गईं। तुरंत मैंने रोते हुए उनकी छाती पर सिर रख दिया और उस परम सुख का अनुभव किया, जिसके लिए कितने दिनों से मेरा ह्रदय तड़प रहा था। आज फिर मुझे पतिदेव का ह्रदय धड़कता हुआ सुनाई दिया, आज उनके स्पर्श में फिर स्फूर्ति का ज्ञान हुआ।

अभी तक उस पद के शब्द मेरे ह्रदय में गूँज रहे थे

कहाँ होते हो अंतर्धान,
लुटा करके सोने-सा प्यार !

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4. अमावस्या की रात्रि

दिवाली की संध्या थी। श्रीनगर के घूरों और खँडहरों के भी भाग्य चमक उठे थे। कस्वे के लड़के, लड़कियाँ स्वेत थालियों में दीपक लिये मंदिर की ओर जा रहे थे। दीपों से अधिक उनके मुखारविंद प्रकाशमान थे। प्रत्येक गृह रोशनी से जगमगा रहा था। केवल पंडित देवदत्त का सप्तघरा भवन अंधकार में काली घटा की भाँति गंभीर और भयंकर रूप में खडा था। गंभीर इसलिए कि उसे अपनी उन्नति के दिन भूले न थे। भयंकर इसलिए कि यह जगमगाहट, मानो उसे चिढ़ा रही थी। एक समय वह था जब कि ईर्ष्या भी उसे देख-देखकर हाथ मलती थी और एक समय यह है जबकि घृणा भी उस पर कटाक्ष करती है। द्वार पर द्वारपाल की जगह अब मदार और एरंड के वृक्ष खड़े थे। दीवानखाने में एक मतंग साँड़ अकड़ता था। ऊपर के घरों में जहाँ सुंदर रमणियाँ मनोहारिणी संगीत गाती थीं; वहाँ आज जंगली कबूतरों के मधुर स्वर सुनाई देते थे। किसी अँगरेजी मदरसे के विद्यार्थी के आचरण की भाँति उसकी जड़ें हिल गई थीं और दीवारें किसी विधवा स्त्री के हृदय की भाँति विदीर्ण हो रही थीं, पर समय को हम कुछ कह नहीं सकते, समय की निंदा व्यर्थ और भूल है, यह मूर्खता और अदूरदर्शिता का फल था।

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