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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763
आईएसबीएन :9781613015001

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


अमावस्या की रात्रि थी। प्रकाश से पराजित होकर, मानो अंधकार ने उसी विशाल भवन में शरण ली थी। पंडित देवदत्त अपने अर्द्धअंधकार वाले कमरे में मौन परंतु चिंता मैं निमग्न थे। आज एक महीने से उनकी पत्नी ‘गिरिजा’ की जिंदगी को निर्दय काल ने खिलवाड़ बना लिया है। पंडितजी दरिद्रता और दुःख को भुगतने के लिए तैयार थे। भाग्य का भरोसा उन्हें धैर्य बँधाता था, किंतु यह नई विपत्ति सहनशक्ति से बाहर थी। बेचारे दिन-के-दिन गिरिजा के सिरहाने बैठ के उसके मुरझाये हुए मुख को देखकर कुढ़ते और रोते थे। गिरिजा जब अपने जीवन से निराश होकर रोती तो वह उसे समझाते- ‘‘गिरिजा रोवो मत, तुम शीघ्र अच्छी हो जाओगी।’’

पंडित देवदत्त के पूर्वजों का कारोबार बहुत विस्तृत था। वे लेन-देन किया करते थे। अधिकतर उनके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ों के साथ थे। उस समय ईमान इतना सस्ता नहीं बिकता था, सादे पत्रों पर लाखों की बातें हो जाती थीं। मगर सन् 57 ईस्वी के बलवे ने कितनी ही रियासतों और राज्यों को मिटा दिया और उनके साथ तिवारियों का यह अन्नधनपूर्ण परिवार भी मिट्टी में मिल गया। खजाना लुट गया, बहीखाते पंसारियों के काम आए। जब कुछ शांति हुई, रियासतें फिर सँभलीं तो समय पलट चुका था। वचन लेख के आधीन हो रहा था, तथा लेख में सादे और रंगीन का भेद होने लगा था।

जब देवदत्त ने होश सँभाला तब उसके पास इस खंडहर के अतिरिक्त और कोई सम्पत्ति न थी। अब निर्वाह के लिए कोई उपाय न था! कृषि में परिश्रम और कष्ट था। वाणिज्य के लिए धन और बुद्धि की आवश्यकता थी। विद्या भी ऐसी नहीं थी कि कहीं नौकरी करते, परिवार की प्रतिष्ठा दान लेने में बाधक थी। अस्तु, साल में दो-तीन बार अपने पुराने व्यवहारियों के घर बिन बुलाये पाहुनों की भाँति जाते और जो कुछ विदाई तथा मार्ग-व्यय पाते उसी पर गुजरान करते। पैतृक प्रतिष्ठा का चिह्न यदि कुछ शेष था तो वह पुरानी चिट्ठी-पत्रियों का ढेर तथा हुंडियों का पुलिंदा, जिनकी स्याही भी उनके मंद भाग्य की भाँति फीकी पड़ गई थी। पंडित देवदत्त उन्हें प्राण से भी अधिक समझते थे। द्वितीया के दिन जब घर-घर लक्ष्मी की पूजा होती है, पंडितजी ठाटबाट से इन पुलिंदों की पूजा करते। लक्ष्मी न सही, लक्ष्मी का स्मारक चिह्न ही सही। दूज का दिन पंडितजी की प्रतिष्ठा के श्राद्ध का दिन था। इसे चाहे विडंबना कहो, चाहे मूर्खता, परंतु श्रीमान् पंडित महाशय को उन पत्रों पर बड़ा अभिमान था। जब गाँव में कोई विवाद छिड़ जाता तो यह सड़े-गले काग़ज़ों की सैन्य ही बहुत काम कर जाती और प्रतिवादी शत्रु को हार माननी पड़ती। यदि सत्तर पीढ़ियों से शस्त्र की सूरत न देखने पर भी लोग क्षत्रिय होने का अभिमान करते तो पंडित देवदत्त का उन लेखों पर अभिमान करना अनरीत नहीं कहा जा सकता जिनमें सत्तर लाख रुपयों की रकम छिपी हुई थी।

वही अमावस्या की रात्रि थी, किंतु दीपमालिका अपनी अल्प जीवनी समाप्त कर चुकी थी। चोरों और जुआरियों के लिए यह शकुन की रात्रि थी, क्योंकि आज की हार साल भर की हार होती है। लक्ष्मी के आगम की धूम थी। कौड़ियों पर अशर्फियाँ लुट रही थीं। भट्टियों में शराब के बदले पानी बिक रहा था। पंडित देवदत्त के अतिरिक्त कस्बा में कोई ऐसा मनुष्य नहीं था; जो दूसरों की कमाई समेटने की धुन में हो। आज भोर ही से गिरिजा की अवस्था शोचनीय थी। विषम ज्वर उसे एक-एक क्षण में मूर्च्छित कर रहा था। एकाएक उसने चौंककर आँखें खोलीं और वह अत्यंत क्षीण स्वर में बोली- ‘‘आज तो दिवाली है।’’

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