नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
रग्घू ने आकर मुलिया से कहा– लड़के मेले जा रहे हैं, सबों को दो-दो आने पैसे दे दो।
मुलिया ने त्योरियाँ चढ़ा कर कहा– पैसे घर में नहीं हैं।
रग्घू– अभी तो तेलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये?
मुलिया– हाँ, उठ गये।
रग्घू– कहाँ उठ गये? जरा सुनूँ, आज त्योहार के दिन लड़के मेला देखने न जायँगे।
मुलिया– अपनी काकी से कहो, पैसे निकालें, गाड़ कर क्या करेंगी।
खूँटी पर कुंजी लटक रही थी। रग्घू ने कुंजी उतारी और चाहा कि खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली– कुंजी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहनने को भी चाहिए, कागज किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिये नहीं है कि दूसरे खायँ और मूँछों पर ताव दें।
पन्ना ने रग्घू से कहा– भइया, पैसे क्या होंगे। लड़के मेला देखने न जायँगे।
रग्घू ने झिड़ककर कहा– मेला देखने क्यों न जायँगे? सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जायँगे?
यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकाल कर लड़कों को दे दिये; मगर कुंजी जब मुलिया को देने लगा, तब उसने उसे आँगन में फेंक दिया और मुँह लपेट कर लोट गयी। लड़के मेला देखने न गये।
इसके बाद दो दिन गुजर गये। मुलिया ने कुछ नहीं खाया और पन्ना भी भूखी रही। रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे; पर न यह उठती न वह। आखिर रग्घू ने हैरान होकर मुलिया से पूछा– कुछ मुँह से तो कह, चाहती क्या है?
मुलिया ने धरती को संबोधित कर के कहा– मैं कुछ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहुँचा दो।
रग्घू– अच्छा उठ, बना खा। पहुँचा दूँगा।
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