नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोप कर लौटी, अँधेरा हो गया था। दिन भर की भूखी थी, आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी; मगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुलिया से आहिस्ते से पूछा– आज अभी चूल्हा नहीं जला?
केदार ने कहा– आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी। भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।
पन्ना– तो तुम लोगों ने खाया क्या?
केदार– कुछ नहीं, रात की रोटियाँ थीं, खुन्नू और लछमन ने खायीं। मैंने सत्तू खा लिया।
पन्ना– और बहू?
केदार– वह तो पड़ी सो रही है, कुछ नहीं खाया।
पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गयी। आटा गूँधती थी और रोती थी। क्या नसीब है, दिन भर खेत में जली, घर आई तो चूल्हे के सामने जलना पड़ा।
केदार का चौदहवाँ साल था। भाभी के रंग-ढंग देखकर सारी स्थिति समझ रहा था। बोला–काकी, भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती।
पन्ना ने चौंक कर पूछा–क्या, कुछ कहती थी?
केदार– कहती कुछ नहीं थी; मगर है उसके मन में यही बात। फिर तुम क्यों नहीं छोड़ देतीं? जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है।
पन्ना ने दाँतों से जीभ दबा कर कहा– चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूल कर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुलिया से कभी बोलोगे, तो समझ लेना जहर खा लूँगी।
दशहरे का त्योहार आया। इस गाँव से कोस-भर पर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई; मगर पैसे कहाँ से आयें? कुंजी तो मुलिया के पास थी।
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