नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
हेम बाबू फीकेपन से वाले, ''जी हाँ, अगर मैं उस वक्त तक ज़िंदा रहा तो। यहाँ तो एक-एक दिन कटना मुश्किल है। अगर बीच में लुढ़क गया तो वह दौलत किसके काम आएगी? अभी सत्तर दिन हैं। यह कहिए पूरा एक ज़माना पड़ा है। नहीं मैनेजर साहव! इससे तो यही बेहतर है कलकत्ता लौट चलिए सच कहता हूँ यहाँ की हवा मेरे लिए नाकाबिले-बरदाश्त हो गई है। सेहत भी खराब हो चली है। यह भी फ़िक्र लगी हुई है कि वहाँ कोई मेरी सुध करके कराह रहा होगा।''
मुझे तो मालूम ही था कि नई बीवी से अलग रहकर हेम वाबू कभी खुश और तदुंस्क्त नहीं रह सकते। बात टालकर वाला, ''लेकिन अब कलकत्ता जाने की कौन सूरत हो सकती है? यह 7० दिन तो यहीं काटने पड़ने।''
हेम बाबू ने एक ठंडी साँस भरी ओर खामोश हो गए।
एक दिन मैं हेम बाबू को डेरे पर छोड्कर कुछ काग़ज़ खरीदने बाजार गया था। वहाँ- देखा कि दुकान के अंदर तख्त पर बैठा हुआ एक आदमी जोर-जोर से इस दिन का अखबार पढ़ रहा था और कई वेकाम आदमी वैठे सुन रहे थे। मजमून था, हमारे फर्जी सियासत (राजनीति) का।
मैं वहाँ खड़ा ही था कि एक दुबले-पतले आदमी ने एक पैसा फेंका और चाय माँगी। मैंने दिल में सोचा कि क्या ऐसे फटेहाल आदमी को भी चाय का शौक होता है? उस आदमी को अपनी तरफ़ घूरते देखकर मुझे बड़ा ताज्जुव हुआ। बहुत सोचा मगर याद न आया कि उसे कहीं देखा है। यह कहने की जरूरत नहीं कि मैं घबरा 'गया। उसका घूरना देखकर मुझे यकीन हो गया कि मैं उसे नहीं पहचानता तो क्या, मगर वह मुझे जरूर पहचानता है। मेरे खौफ का कारण जाहिर था। कहीं उसने अखबारों में मेरे सफर का हाल पढ़ा हो और मुझे यहाँ इस तरह एक ओँख और दो कानों से देखकर भांडा फोड़ दे तो सारा खेल बिगड़ जाए। हम लोगों की सारी पोल खुल जावेगी और आज ही कल में इस धोखेबाजी का हाल सारे मुल्क में मशहूर हो जाएगा। हम तो मुँह दिखाने के लायक न रहेंगे। मारे फ़िक्र के मैं बदहवास हो गया। दिल में अपने को कोसने लगा।
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