नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
एक हफ्ते के अंदर ही तमाम तैयारियाँ मुकम्मिल हो गईं। हम लोग स्टेशन पर पहुँचे। टिकट लेकर गाड़ी में बैठने के बाद हेम बाबू ने जो मुहर्रमी सूरत बनाई, वह मुझे कभी नहीं भूलेगी। इतना गम तो उन्हें पहली बीवी के मरने पर भी नहीं हुआ था। बेचारे की सूरत पर तरस आता था। स्टेशन से मैंने दो अंग्रेजी अखबार खरीद लिए थे। उन दोनों में ही हम दोनों के कश्मीर जाने की बड़ी लंबी-चौड़ी खबर दर्ज थी। ऐसा मालूम होता था, गोया हम लोग सचमुच कश्मीर जा रहे हैं।
सफ़र खत्म हुआ। हम लोग रामनगर पहुँचे। गाँव बहुत छोटा था और सब खाली पड़ा था। हम लोगों को मकान किराए पर आसानी से मिल गया। मैंने मकान-मालिक से कह दिया कि मेरे दोस्त की सेहत खराब है। यहीं हम लोग आब-ओ-हवा तब्दील करने आए हैं।
पाँच-सात दिन गुजरने पर वसंती हवा चलने लगी। एक दिन मैंने हेम बाबू से पूछा, ''कहिए, कैसी जगह है?''
हेम बाबू मुँह बनाकर बोले, ''अरे राम-राम! ऐसी जगह भी आदमी आते हैं! न कोई दिलचस्पी, न मनोरंजन। गाँव क्या है, मरघट है। बैठे-बैठे जी उकता जाता है। कोई काम न काज, शाम को निठल्ले बैठे रहते हैं।''
थोड़ी देर के बाद वह फिर बोले, ''कहिए, कितने दिन गुज़र गए? मेरा तो नाक में दम आ गया इस गंदे मकान में बैठे-बैठे। मैं तो सड़ गया। कहीं जरा घूमने-फिरने का मौका नहीं। मैं मोटा ऐसा बेहिसाब हूँ कि रास्ते में निकलने से लड़कों से पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। खैरियत इतनी है कि इस गांव में लड़के ज्यादा नहीं हैं। नहीं तो अव तक मैं सचमुच पागल हो जाता।''
ये बातें मेरे लिए कुछ नई न थीं। रोज ही दुखड़ा रहता था। हँसी रोककर मैंनै इतना ही कहा, ''हम लोगों को यहां आए सिर्फ़ तीस दिन ही हुए हैं। अभी 7० दिन और बाकी हैं। फिर पौबारा है, नसीब का सितारा चमकेगा।''
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