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प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9764
आईएसबीएन :9781613015018

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग


श्रीमतीजी ने इसके जवाब में लिखा तुम समझते हो, मैं खोंचेवालों की आवाजों से डर जाऊँगी। यहाँ गीदड़ों का हौवाना और उल्लुओं का चीखना सुनकर तो डरती नहीं खोंचेवालों से क्या डरूँगी !

अंत में मुझे एक ऐसा बहाना सूझा, जिसकी सफलता का मुझे पूरा विश्वास था। यद्यपि इसमें कुछ बदनामी थी; लेकिन बदनामी से मैं इतना नहीं डरता, जितना उस विपत्ति से। फिर मैंने लिखा शहर शरीफजादियों के रहने की जगह नहीं। यहाँ की महरियाँ इतनी कटुभाषिणी हैं कि बातों का जवाब गालियों से देती हैं, और उनके बनाव-सँवार का क्या पूछना। भले घर की स्त्रियाँ तो उनके ठाट देखकर ही शर्म से पानी-पानी हो जाती हैं। सिर से पाँव तक सोने से लदी हुई, सामने से निकल जाती हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि सुगंधि की लपट निकल गयी। गृहिणियाँ ये ठाट कहाँ से लायें? उन्हें तो और भी सैकड़ों चिंताएँ हैं। इन महरियों को तो बनाव-सिंगार के सिवा दूसरा काम ही नहीं। नित्य नयी सज-धज, नित्य नयी अदा और चंचल तो इस गजब की हैं; मानो अंगों में रक्त की जगह पारा भर दिया हो। उनका चमकना और मटकना और मुस्कराना देखकर गृहिणियाँ लज्जित हो जाती हैं और ऐसी दीदा-दिलेर हैं कि जबरदस्ती घरों में घुस पड़ती हैं। जिधर देखो इनका मेला-सा लगा हुआ है। इनके मारे भले आदमियों का घर में बैठना मुश्किल है ! कोई खत लिखाने के बहाने से आ जाती है; कोई खत पढ़ाने के बहाने से। असली बात तो यह है कि गृहदेवियों का रंग फीका करने में इन्हें आनंद आता है। इसलिए शरीफजादियाँ बहुत कम शहरों में आती हैं।

मालूम नहीं इस पत्र में मुझसे क्या गलती हुई कि तीसरे दिन पत्नीजी एक बूढ़े कहार के साथ मेरा पता पूछती हुई अपने तीनों बच्चों को लिये एक असाध्य रोग की भाँति आ डटीं।

मैंने बदहवास होकर पूछा- क्यों कुशल तो है?

पत्नीजी ने चादर उतारते हुए कहा- घर में कोई चुड़ैल बैठी तो नहीं है? यहाँ किसी ने कदम रखा तो नाक काट लूँगी। हाँ, जो तुम्हारी शह न हो !

अच्छा, तो अब रहस्य खुला। मैंने सिर पीट लिया। क्या जानता था, अपना तमाचा अपने ही मुँह पर पड़ेगा।

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4. आगा-पीछा

रूप और यौवन के चंचल विलास के बाद कोकिला अब उस कलुषित जीवन के चिह्न को आँसुओं से धो रही थी। विगत जीवन की याद आते ही उसका दिल बेचैन हो जाता और वह विषाद और निराशा से विकल होकर पुकार उठती हाय ! मैंने संसार में जन्म ही क्यों लिया ? उसने दान और व्रत से उन कालिमाओं को धोने का प्रयत्न किया और जीवन के बसंत की सारी विभूति इस निष्फल प्रयास में लुटा दी। पर यह जागृति क्या किसी महात्मा का वरदान या किसी अनुष्ठान का फल था? नहीं, यह उस नवजात शिशु के प्रथम दर्शन का प्रसाद था, जिसके जन्म ने आज पन्द्रह साल से उसकी सूनी गोद को प्रदीप्त कर दिया था। शिशु का मुख देखते ही उसके नीले होंठों पर एक क्षीण, करुण, उदास मुस्कराहट झलक गई पर केवल एक क्षण के लिए। एक क्षण के बाद वह मुस्कराहट एक लम्बी साँस में विलीन हो गयी। उस अशक्त, क्षीण, कोमल रुदन ने कोकिला के जीवन का रुख फेर दिया। वात्सल्य की वह ज्योति उसके लिए जीवन-सन्देश और मूक उपदेश थी।

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