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प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9764
आईएसबीएन :9781613015018

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग


कोकिला ने उस नवजात बालिका का नाम रखा श्रृद्धा। उसी के जन्म ने तो उसमें श्रृद्धा उत्पन्न की थी। वह श्रृद्धा को अपनी लड़की नहीं, किसी देवी का अवतार समझती थी। उसकी सहेलियाँ उसे बधाई देने आतीं; पर कोकिला बालिका को उनकी नजरों से छिपाती। उसे यह भी मंजूर न था कि उनकी पापमयी दृष्टि भी उस पर पड़े। श्रृद्धा ही अब उसकी विभूति, उसकी आत्मा, उसका जीवन-दीपक थी। वह कभी-कभी उसे गोद में लेकर साध से छलकती हुई आँखों से देखती और सोचती क्या यह पावन ज्योति भी वासना के प्रचंड आघातों का शिकार होगी ? मेरे प्रयत्न निष्फल हो जायेंगे ? आह ! क्या कोई ऐसी औषधि नहीं है, जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे ? भगवान से वह सदैव प्रार्थना करती कि मेरी श्रृद्धा किन्हीं काँटों में न उलझे। वह वचन और कर्म से, विचार और व्यवहार से उसके सम्मुख नारी-जीवन का ऊँचा आदर्श रखेगी। श्रृद्धा इतनी सरल, इतनी प्रगल्भ, इतनी चतुर थी कि कभी-कभी कोकिला वात्सल्य से गद्गद होकर उसके तलवों को अपने मस्तक से रगड़ती और पश्चात्ताप तथा हर्ष के आँसू बहाती।

सोलह वर्ष बीत गये। पहले की भोली-भाली श्रृद्धा अब एक सगर्व, शांत, लज्जाशील नवयौवना थी, जिसे देखकर आँखें तृप्त हो जाती थीं। विद्या की उपासिका थी, पर सारे संसार से विमुख। जिनके साथ वह पढ़ती थी वे उससे बात भी न करना चाहती थीं। मातृ-स्नेह के वायुमंडल में पड़कर वह घोर अभिमानिनी हो गई थी। वात्सल्य के वायुमंडल, सखी-सहेलियों के परित्याग, रात-दिन की घोर पढ़ाई और पुस्तकों के एकांतवास से अगर श्रृद्धा को अहंभाव हो आया, तो आश्चर्य की कौन-सी बात है ! उसे किसी से भी बोलने का अधिकार न था। विद्यालय में भले घर की लड़कियाँ उसके सहवास में अपना अपमान समझती थीं। रास्ते में लोग उँगली उठाकर कहते 'क़ोकिला रंडी की लड़की है।' उसका सिर झुक जाता, कपोल क्षण भर के लिए लाल होकर दूसरे ही क्षण फिर चूने की तरह सफेद हो जाते। श्रृद्धा को एकांत से प्रेम था। विवाह को ईश्वरीय कोप समझती थी। यदि कोकिला ने कभी उसकी बात चला दी, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते, चमकते हुए लाल चेहरे पर कालिमा छा जाती, आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते; कोकिला चुप हो जाती। दोनों के जीवन-आदर्शों में विरोध था। कोकिला समाज के देवता की पुजारिन, श्रृद्धा को समाज से, ईश्वर से और मनुष्य से घृणा। यदि संसार में उसे कोई वस्तु प्यारी थी, तो वह थी उसकी पुस्तकें। श्रृद्धा उन्हीं विद्वानों के संसर्ग में अपना जीवन व्यतीत करती, जहाँ ऊँच-नीच का भेद नहीं, जाति-पाँति का स्थान नहीं सबके अधिकार समान हैं। श्रृद्धा की पूर्ण प्रकृति का परिचय महाकवि रहीम के एक दोहे के पद से मिल जाता है

प्रेम सहित मरिबो भलो, जो विष देय बुलाय।

अगर कोई सप्रेम बुलाकर उसे विष दे देता, तो वह नतजानु हो अपने मस्तक से लगा लेती क़िन्तु अनादर से दिये हुए अमृत की भी उसकी नजरों में कोई हकीकत न थी।

एक दिन कोकिला ने आँखों में आँसूभर कर श्रृद्धा से कहा, 'क्यों मुन्नी, सच बताना, तुझे यह लज्जा तो लगती ही होगी कि मैं क्यों इसकी बेटी हुई। यदि तू किसी ऊँचे कुल में पैदा हुई होती, तो क्या तब भी तेरे दिल में ऐसे विचार आते ? तू मन-ही-मन मुझे जरूर कोसती होगी।'

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