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प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9764
आईएसबीएन :9781613015018

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग


श्रृद्धा माँ का मुँह देखने लगी। माता से इतनी श्रृद्धा कभी उसके दिल में पैदा नहीं हुई थी। काँपते हुए स्वर में बोली, 'अम्माँजी, आप मुझसे ऐसा प्रश्न क्यों करती हैं ? क्या मैंने कभी आपका अपमान किया है ?'

कोकिला ने गदगद होकर कहा, 'नहीं बेटी, उस परम दयालु भगवान् से यही प्रार्थना है कि तुम्हारी जैसी सुशील लड़की सबको दे। पर कभी-कभी यह विचार आता है कि तू अवश्य ही मेरी बेटी होकर पछताती होगी।'

श्रृद्धा ने धीर कंठ से कहा, 'अम्माँ, आपकी यह भावना निर्मूल है। मैं आपसे सच कहती हूँ, मुझे जितनी श्रृद्धा और भक्ति आपके प्रति है, उतनी किसी के प्रति नहीं। आपकी बेटी कहलाना मेरे लिए लज्जा की बात नहीं, गर्व की बात है। मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। आप जिस वायुमंडल में पलीं, उसका असर तो पड़ना ही था; किन्तु पाप के दलदल में फॅसकर फिर निकल आना अवश्य गौरव की बात है। बहाव की ओर से नाव खेले जाना तो बहुत सरल है; किन्तु जो नाविक बहाव के प्रतिकूल खे ले जाता है, वही सच्चा नाविक है।'

कोकिला ने मुस्कराते हुए पूछा, 'तो फिर विवाह के नाम से क्यों चिढ़ती है ?'

श्रृद्धा ने आँखें नीची करके उत्तर दिया 'बिना विवाह के जीवन व्यतीत नहीं हो सकता? मैं कुमारी ही रहकर जीवन बिताना चाहती हूँ। विद्यालय से निकलकर कालेज में प्रवेश करूँगी, और दो-तीन वर्ष बाद हम दोनों स्वतन्त्र रूप से रह सकती हैं। डाक्टर बन सकती हूँ, वकालत कर सकती हूँ; औरतों के लिए सब मार्ग खुल गये हैं।'

कोकिला ने डरते-डरते पूछा, 'क्यों, क्या तुम्हारे हृदय में कोई दूसरी इच्छा नहीं होती? किसी से प्रेम करने की अभिलाषा तेरे मन में नहीं पैदा होती?'

श्रृद्धा ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, 'अम्माँजी, प्रेम-विहीन संसार में कौन है? प्रेम मानव-जीवन का श्रेष्ठ अंग है। यदि ईश्वर की ईश्वरता कहीं देखने में आती है, तो वह केवल प्रेम में। जब कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा; जो मुझे वरने में अपनी मानहानि न समझेगा, तो मैं तन-मन-धन से उसकी पूजा करूँगी, पर किसके सामने हाथ पसारकर प्रेम की भिक्षा माँगूँ? यदि किसी ने सुधर के क्षणिक आवेश में विवाह कर भी लिया, तो मैं प्रसन्न न हो सकूँगी। इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं विवाह का विचार ही छोड़ दूँ।'

इन्हीं दिनों महिला-मंडल का एक उत्सव हुआ। कालेज के रसिक विद्यार्थी काफी संख्या में सम्मिलित हुए। हाल में तिल-भर भी जगह खाली न थी। श्रृद्धा भी आकर स्त्रियों की सबसे अंत की पंक्ति में खड़ी हो गयी। उसे यह सब स्वाँग मालूम होता था। आज प्रथम ही बार वह ऐसी सभा में सम्मिलित हुई थी।

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