कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 3 प्रेमचन्द की कहानियाँ 3प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग
श्रृद्धा- 'मैं तो कुलीनता को जन्म से नहीं, धर्म से मानती हूँ।'
नवयुवक- 'यह तो आपकी वक्तृता ही से सिद्ध हो गया है और इसी से आपसे बातें करने का साहस भी हुआ, नहीं तो कहाँ आप और कहाँ मैं !'
श्रृद्धा ने अपनी आँखें नीची करके कहा, 'शायद आपको मेरा हाल मालूम नहीं।'
नवयुवक- 'बहुत अच्छी तरह से मालूम है। यदि आप अपनी माताजी के दर्शन करवा सकें, तो आपका बड़ा आभारी होऊँगा।'
'वह आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्न होंगी ! शुभ नाम !'
'मुझे भगतराम कहते हैं।'
यह परिचय धीरे-धीरे स्थिर और दृढ़ होता गया; मैत्री प्रगाढ़ होती गयी। श्रृद्धा की नजरों में भगतराम एक देवता थे और भगतराम के समक्ष श्रृद्धा मानवी रूप में देवी थी।
एक साल बीत गया। भगतराम रोज देवी के दर्शन को जाता। दोनों घंटों बैठे बातें किया करते। श्रृद्धा कुछ भाषण करती, तो भगतराम सब काम छोड़कर सुनने जाता। उनके मनसूबे एक थे, जीवन के आदर्श एक, रुचि एक, विचार एक। भगतराम अब प्रेम और उसके रहस्यों की मार्मिक विवेचना करता। उसकी बातों में 'रस' और 'अलंकार' का कभी इतना संयोग न हुआ था। भावों को इंगित करने में उसे कमाल हो गया था। लेकिन ठीक उन अवसरों पर, जब श्रृद्धा के हृदय में गुदगुदी होने लगती, उसके कपोल उल्लास से रंजित हो जाते, भगतराम विषय पलट देता और जल्दी ही कोई बहाना बनाकर वहाँ से खिसक जाता। उसके चले जाने पर श्रृद्धा हसरत के आँसू बहाती और सोचती क्या इन्हें दिल से मेरा प्रेम नहीं ?
एक दिन कोकिला ने भगतराम को एकान्त में बुलाकर कहा, 'बेटा ! अब तो मुन्नी से तुम्हारा विवाह हो जाय, तो अच्छा। जीवन का क्या भरोसा। कहीं मर जाऊँ तो यह साध मन ही में रह जाय।'
भगतराम ने सिर हिलाकर कहा, 'अम्माँ, जरा इस परीक्षा में पास हो जाने दो। जीविका का प्रश्न हल हो जाने के बाद ही विवाह शोभा देता है।'
'यह सब तुम्हारा ही है; क्या मैं साथ बाँध ले जाऊँगी ?'
'यह आपकी कृपा है, अम्माँजी; पर इतना निर्लज्ज न बनाइये। मैं तो आपका हो चुका, अब तो आप दुतकारें भी तो इस द्वार से नहीं टल सकता। मुझ जैसा भाग्यवान् संसार में और कौन है। लेकिन देवी के मंदिर में जाने से पहले कुछ पान-फूल तो होना ही चाहिए।'
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