कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 3 प्रेमचन्द की कहानियाँ 3प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग
साल-भर और गुजर गया। भगतराम ने एम.ए. की उपाधि ली और अपने ही विद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्यापक हो गया। उस दिन कोकिला ने खूब दान-पुण्य किया। जब भगतराम ने आकर उसके पैरों पर सिर झुकाया तो उसने उसे छाती से लगा लिया। उसे विश्वास था कि आज भगतराम विवाह के प्रश्न को जरूर छेड़ेगा। श्रृद्धा प्रतीक्षा की मूर्ति बनी हुई थी। उसका एक-एक अंग मानो सौ-सौ तार होकर प्रतिध्वनित हो रहा था। दिल पर एक नशा छाया हुआ था, पाँव जमीन पर न पड़ते थे। भगतराम को देखते ही माँ से बोली, 'अम्माँ, अब हमको एक हलकी-सी मोटर ले दीजिएगा।'
कोकिला ने मुस्कराकर कहा, 'हलकी-सी क्यों ? भारी-सी ले लेना। पहले कोई अच्छा-सा मकान तो ठीक कर लो।'
श्रृद्धा भगतराम को अपने कमरे में बुला ले गयी। दोनों बैठकर नये मकान की सजावट के मनसूबे बाँधने लगे। परदे, फर्श, तस्वीरें सबकी व्यवस्था की गयी। श्रृद्धा ने कहा, 'रुपये भी अम्माँजी से ले लेंगे।'
भगतराम बोला, 'उनसे रुपये लेते मुझे शर्म आएगी।'
श्रृद्धा ने मुस्कराकर कहा, 'आखिर मेरे दहेज के रुपये तो देंगी।'
दोनों घंटे-भर बातें करते रहे। मगर वह मार्मिक शब्द, जिसे सुनने के लिए श्रृद्धा का मन आतुर हो रहा था, आज भी भगतराम के मुँह से न निकला और वह विदा हो गया।
उसके जाने पर कोकिला ने डरते-डरते पूछा, 'आज क्या बातें हुईं ?'
श्रृद्धा ने उसका आशय समझकर कहा, 'अगर मैं ऐसी भारी हो रही हूँ तो कुएं में क्यों नहीं डाल देतीं ?'
यह कहते-कहते उसके धैर्य की दीवार टूट गयी। वह आवेश और वह वेदना, जो भीतर-ही-भीतर अब तक टीस रही थी, निकल पड़ी। वह फूट-फूट कर रोने लगी !
कोकिला ने झुँझलाकर कहा, 'ज़ब कुछ बातचीत ही नहीं करना है, तो रोज आते ही क्यों हैं ? कोई ऐसा घराना भी तो नहीं है, और न ऐसे धन्नासेठ ही हैं।'
श्रृद्धा ने आँखें पोंछकर कहा, 'अम्माँजी, मेरे सामने उन्हें कुछ न कहिए। उनके दिल में जो कुछ है, वह मैं जानती हूँ। वह मुँह से चाहे कुछ न कहें; मगर दिल से कह चुके। और मैं चाहे कानों से कुछ न सुनूँ पर दिल से सब कुछ सुन चुकी।'
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