लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9764
आईएसबीएन :9781613015018

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

175 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग


चौधरी- 'हम तो गँवार आदमी हैं, पर समझ में नहीं आता कि तुम्हारी यह नीयत कैसे हुई ? रण्डी की बेटी चाहे इन्नर की परी हो, तो भी रण्डी की बेटी है। हम तुम्हारा विवाह वहाँ न होने देंगे। अगर तुमने विवाह किया, तो हम दोनों तुम्हारे ऊपर जान दे देंगे। इतना अच्छी तरह से समझ लेना क्यों बच्चा की अम्माँ ?'

चौधराइन- 'ब्याह कर लेंगे, जैसे हँसी-ठट्ठा है ! झाड़ू मार के भगा दूँगी रॉड़ को ! अपनी बेटी अपने घर में रखे।'

भगतराम- 'अगर आप लोगों की आज्ञा नहीं है, तो मैं विवाह नहीं करूँगा; मगर मैं किसी दूसरी औरत से भी विवाह न करूँगा।'

चौधराइन- 'हाँ, तुम कुँवारे रहो, यह हमें मंजूर है। पतुरिया के घर में ब्याह न करेंगे।'

भगतराम ने अबकी झुँझलाकर कहा, 'आप उसे बार-बार पतुरिया क्यों कहती हैं। किसी जमाने में यह उसका पेशा रहा होगा। आज दिन वह जितने आचार-विचार से रहती है, शायद ही कोई और रहती हो। ऐसा पवित्र आचरण तो मैंने आज तक देखा ही नहीं।'

भगतराम का सारा यत्न विफल हो गया। चौधराइन ने ऐसी जिद पकड़ी कि जौ-भर अपनी जगह से न टली।

रात को जब भगतराम अपने प्रेम-मन्दिर में पहुँचा, तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। एक-एक अंग से निराशा टपक रही थी। श्रृद्धा रास्ता देखती हुई घबरा रही थी कि आज इतनी रात तक आये क्यों नहीं। उन्हें क्या मालूम कि मेरे दिल की क्या हालत हो रही है। यार-दोस्तों से छुट्टी मिलेगी, तो भूलकर इधर भी आ जायेंगे।

कोकिला ने कहा, 'मैं तो तुझसे कह चुकी कि उनका अब वह मिजाज नहीं रहा। फिर भी तो तू नहीं मानती। आखिर इस टालमटोल की कोई हद भी है।'

श्रृद्धा ने दुखित होकर कहा, 'अम्माँजी, मैं आपसे हजार बार विनय कर चुकी हूँ कि चाहे लौकिक रूप में कुमारी ही क्यों न रहूँ; लेकिन हृदय से उनकी ब्याहता हो चुकी। अगर ऐसा आदमी विश्वास करने के काबिल नहीं है, तो फिर नहीं जानती कि किस पर विश्वास किया जा सकता है।'

इसी समय भगतराम निराशा की मूर्ति बने हुए कमरे के भीतर आये। दोनों स्त्रियों ने उनकी ओर देखा। कोकिला की आँखों में शिकायत थी और श्रृद्धा की आँखों में वेदना। कोकिला की आँखें कह रही थीं, यह क्या तुम्हारे रंग-ढंग हैं ? श्रृद्धा की आँखें कह रही थीं इतनी निर्दयता !

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book