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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


डॉक्टर घोष, जो बैठे हुए अपने तजुर्बे को आलिमाना के अंदाज़ से देख रहे थे, बोले- ''जरा, सब्र कीजिए। आप लोगों को बूढ़ा होने में बहुत दिन लगे थे, मगर जवान होने में आध घंटा लग जाए तो आपको बेसब्र न होना चाहिए। यह पानी हाज़िर है, आप लोग जितना चाहें पी सकते हैं।''

यह कहकर डॉक्टर साहब ने चारों गिलासों को दुबारा भरा। घड़े में अब भी इतना पानी बाकी था कि शहर के आधे बूढ़े अपने नाती-पोतों के समवयस्क हो सकते थे। अभी गिलासों में बुलबुले उठ रहे थे और चारों आदमियों ने झपटकर मेज से गिलास उठा लिए और एक ही घूँट में खाली कर दिए। यक़ीनन यह आबे-हयात (सुधा-रस) था। अभी पानी उन लोगों के हलक़ में उतरा ही था कि उनकी सूरत में इंक़लाब पैदा होने लगा। उनकी आँखों में जवानी का-सा नूर आ गया। सफ़ेद बाल काले होने लगे। एक लम्हा और गुज़रा। मेज के गिर्द चार बूढ़ों की जगह तीन नौजवान मर्द बैठे थे और एक हसीन और पुष्पांगी सुंदरी। ठाकुर विक्रमसिंह ने चंचलकुँवर की तरफ़ मस्ताना निगाह से देखकर कहा- ''प्यारी चंचल, तुम पर इस वक्त ग़ज़ब का निखार है।''

प्रातःकालीन प्रकाश से जिस तरह अंधकार हटने लगती है, उसी तरह चंचलकुँवर का चेहरा शगुफ्ता होता जाता था। उसे पुराना तजुर्बा था कि ठाकुर साहब की तारीफें हमेशा सच्ची नहीं होतीं, इसलिए वह दौड़ी हुई आइने के सामने गई और उसमें अपनी सूरत देखने लगी। उसे अब भी खौफ था कि कहीं बुढ़ापे का घृणित रूप न नज़र आए। बाकी तीनों आदमियों के अंदाज़ से ऐसा मालूम होता था कि इस पानी में कुछ नशीली तासीर है। शायद इसका यह ही सबब हो कि बुढ़ापे का बोझ सिर से उतर जाने के कारण खुशी के मारे मतवाले हो रहे थे। बाबू दयाराम मुल्क की समस्याओं पर गौर कर रहे थे, लेकिन उन बातों का संबंध ज़माने से था या अतीत या भविष्य से, इसका पता लगाना मुश्किल था। कभी तो वह बुलन्द आवाज में देश-भक्ति, मानवीय अधिकारों पर तकरीर करने लगते। कभी किसी खुफ़िया मामले के मुतअल्लिक़ ऐसी दबी जवान से फुसफुसाते कि उन्हें अपनी ही आवाज़ सुनाई देती थी और कभी रुक-रुककर निहायत विनम्र रीति से बोलने लगते, मानो किसी उच्चाधिकारी के सामने बोल रहे हों। ठाकुर विक्रमसिंह भी कोई चलती हुई चीज़ गुनगुना रहे थे और गिलास पर अँगुलियों से ताल भी देते जाते थे। उनकी आँखें चंचलकुँवर के हसीन चेहरे की तरफ़ लगी हुई थीं। मेज की दूसरी तरफ़ सेठ करोड़ीमल रोकड़ और खाते की धुन में लीन थे और सोच रहे थे कि अगर पहाड़ से बरफ के तोदे काट-काटकर लाए जाएँ तो कितना नफ़ा हो, और चंचलकुँवर आईने के सामने खड़ी अपनी सूरत देख-देखकर खुशी से मुस्कुरा रही थी। रह-रहकर वह अपना चेहरा आइने के करीब ले जाकर यह देखने की कोशिश करती थी कि कोई पुराना दाग तो बाकी नहीं रहा। उन्हें अपने निखार पर अब भी भरोसा न हुआ। उन्हें याद आता था कि मैं जवानी में इससे ज्यादा हसीन थी। आखिर वह एक अंदाज़ से घूँघट उठाए हुए मेज के क़रीब आई और बोलीं- ''डॉक्टर साहब, कृपया मुझे एक गिलास और दे दीजिए।''

डाक्टर घोष ने हँसकर कहा- ''हाँ-हाँ, शौक से लीजिए। यह देखिए, मैं गिलास भरे देता हूँ।''

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