कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 4 प्रेमचन्द की कहानियाँ 4प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग
सहसा विमल की माँ चौंकी। शीतला के कमरे में आयी, तो विमल को देखते ही मातृस्नेह से विह्वल होकर उसे छाती से लगा लिया। विमल ने उसके चरणों पर सिर रखा। उसकी आँखों से आँसुओं की गरम-गरम बूँद निकल रही थीं। माँ पुलकित हो रही थी। मुख से बात न निकलती थी। एक क्षण के लिए विमल ने कहा–अम्माँ?
कंठ-ध्वनि ने उसका आशय प्रकट कर दिया।
माँ ने प्रश्न समझकर कहा– नहीं बेटा, यह बात नहीं है।
विमल– यह देखता क्या हूँ?
माँ–स्वभाव ही ऐसा है, तो कोई क्या करे?
विमल– सुरेश ने मेरा हुलिया क्यों लिखाया था?
माँ– तुम्हारी खोज लेने के लिए। उन्होंने दया न की होती, तो आज घर में किसी को जीता न पाते।
विमल– बहुत अच्छा होता।
शीतला ने ताने से कहा– अपनी ओर से तुमने सबको मार ही डाला था। फूलों की सेज बिछा गए थे न?
विमल– अब तो फूलों की सेज ही बिछी हुई देखता हूँ।
शीलता– तुम किसी के भाग्य के विधाता हो?
विमलसिंह उठकर क्रोध से काँपता हुआ बोला– अम्माँ, मुझे यहाँ से ले चलो। मैं इस पिशाचिनी का मुँह नहीं देखना चाहता। मेरी आँखों में खून उतरता चला आता है। मैंने इस कुल-कलंकिनी के लिए तीन साल तक जो कठिन तपस्या की है, उससे ईश्वर मिल जाता; पर इसे न पा सका !
यह कहकर वह कमरे से निकल आया, और माँ के कमरे में लेट रहा। माँ ने तुरंत उसका मुँह और हाथ-पैर धुलाए। वह चूल्हा जलाकर पूरियाँ पकाने लगी। साथ-साथ घर की विपत्ति-कथा भी कहती जाती थी। विमल के हृदय में सुरेश के प्रति जो विरोधाग्नि प्रज्जवलित हो रही थी। वह शांत हो गई; लेकिन हृदय-दाह ने रक्त-दाह का रूप धारण किया। जोर का बुखार चढ़ आया। लम्बी यात्रा की थकान और कष्ट तो था ही, बरसों के कठिन श्रम और तप के बाद यह मानसिक संताप और भी दुस्साह हो गया।
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