लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

374 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


सारी रात वह अचेत पड़ा रहा। माँ बैठी पंखा झलती और रोती रही। दूसरे दिन भी वह बेहोश पड़ा रहा। शीतला उसके पास एक क्षण के लिए भी न आयी। इन्होंने मुझे कौन सोने के कौर खिला दिये हैं, जो इनकी धौंस सहूँ? यहाँ तो ‘जैसे कंता घर रहे, वैसे रहे विदेश।’ किसी कि फूटी कौड़ी नहीं जानती। बहुत ताव दिखाकर तो गए थे। क्या लाद लाए?

संध्या के समय सुरेश को खबर मिली। तुरन्त दौड़े हुए आए। आज दो महीने के बाद इन्होंने इस घर में कदम रखा। विमल ने आँखें खोलीं, पहचान गया। आँखों से आँसू बहने लगे। सुरेश के मुखारविंद पर दया की ज्योति झलक रही थी। विमल ने उनके बारे में जो अनुचित संदेह किया था, उनके लिए वह अपने को धिक्कार रहा था।
शीतला ने ज्यों ही सुना कि सुरेशसिंह आये हैं, तुरन्त शीशे के सामने गयी, केश छिटका लिए और विषाद की मूर्ति बनी हुई विमल के कमरे में आयी। कहाँ तो विमल की आँखें बन्द थी, मूर्छित-सा पड़ा था। कहाँ शीतला के आते ही आँखें खुल गईं। अग्निमय नेत्रों से उसकी ओर देखकर बोला– अभी आयी है? आज के तीसरे दिन आना। कुँवर साहब से उस दिन फिर भेंट हो जाएगी।

शीतला उलटे-पाँव चली गई। सुरेश पर घड़ों पानी पड़ गया। मन में केवल सोचा–कितना रूप-लावण्य है; पर कितना विषाक्त ! हृदय की जगह केवल श्रृंगार-लालसा!

आतंक बढ़ता ही गया। सुरेश ने डॉक्टर बुलवाए। पर मृत्यु-देव ने किसी कि न मानी। उसका हृदय पाषाण है। किसी भाँति नहीं पसीजता। कोई अपना हृदय निकालकर रख दे, आँसुओं की नदी बहा दे; पर उन्हें दया नहीं आती। बसे हुए घर को उजाड़ना, लहराती हुई खेती को सुखाना उनका काम है। और, उनकी निर्दयता कितनी विनोदमय है? वह नित्य नए रूप बदलते रहते हैं। कभी दामिनी बन जाते हैं तो कभी पुष्प माला, कभी सिंह बन जाते हैं, तो कभी सियार। कभी अग्नि के रूप में दिखाई देते हैं, तो कभी जल के रूप में।

तीसरे दिन, पिछली रात को विमल की मानसिक पीड़ा और हृदय-ताप का अंत हो गया। चोर दिन को कभी चोरी नहीं करता। यम दूत प्रायः रात को ही सबकी नजरें बचाकर आते हैं, और प्राण रत्न को चुरा ले जाते हैं। आकाश के फूल मुरझाए हुए थे। वृक्ष-समूह स्थिर थे; पर शोक में मग्न, सिर झुकाए हुए। रात शोक का बाह्यरूप है। रात मृत्यु का क्रीड़ा-क्षेत्र है। उसी समय विमल के घर से आर्त-नाद सुनाई दिया–वह नाद, जिसे सुनने के लिए मृत्युदेव विकल रहते हैं।

शीतला चौंक पड़ी, और घबरायी हुई मरण-शय्या की ओर चली। उसने मृत देह पर निगाह डाली, और भयभीत होकर एक पग पीछे हट गई। उसे जान पड़ा, विमल सिंह उसकी ओर अत्यन्त तीव्र दृष्टि से देख रहे हैं। बुझे हुए दीपक में उसे भयंकर ज्योति दिखाई पड़ी। वह मारे भय के वहाँ ठहर न सकी। द्वार से निकल ही रही थी कि सुरेशसिंह से भेंट हो गई। कातर स्वर में बोली– मुझे यहाँ डर लगता है। उसने चाहा कि रोती हुई उनके पैरों पर गिर पड़ूँ; पर वह अलग हट गए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book