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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


जब किसी पथिक को चलते-चलते ज्ञात होता है कि मैं रास्ता भूल गया हूँ, तो वह सीधे रास्ते पर आने के लिए बड़े वेग से चलता है। झुँझलाता है कि मैं इतना असावधान क्यों हो गया? सुरेश भी अब शांति-मार्ग पर आने के लिए विकल हो गए। मंगला की स्नेहमयी सेवाएँ याद आने लगीं। हृदय में वास्तविक सौंदर्योपासना का भाव उदय हुआ। उसमें कितना प्रेम, कितना त्याग था, कितनी क्षमा थी! उसकी अतुल पति-भक्ति को याद करके कभी-कभी वह तड़प जाते। आह! मैंने घोर अत्याचार किया। ऐसे उज्ज्वल रत्न का आदर न किया। मैं यहीं जड़वत् पड़ा रहा, और मेरे सामने ही लक्ष्मी घर से निकल गई! मंगला ने चलते-चलते शीतला से जो बातें कहीं, वे उन्हें मालूम थीं। पर उन बातों पर विश्वास न होता था। मंगला शांत-प्रकृति की थी; वह इतनी उद्दण्डता नहीं कर सकती। उसमें क्षमा थी; वह इतना विद्वेष नहीं कर सकती। उनका मन कहता था कि वह जीती है और कुशल से है। उसके मायके वालों को कई पत्र लिखे, पर वहाँ व्यंग्य और कटु वाक्यों के सिवा और क्या रखा था? अंत में उन्होंने लिखा– अब उस रत्न की खोज में मैं स्वयं जाता हूँ। या तो उसे लेकर ही आऊँगा, या कहीं मुख में कालिख लगाकर डूब मरूँगा।

इस पत्र का उत्तर आया– अच्छी बात है, जाइए, पर यहाँ से होते हुए जाइएगा। यहाँ से भी कोई आपके साथ चला जायगा।

सुरेशसिंह को इन शब्दों में आशा की झलक दिखाई दी। उसी दिन प्रस्थान कर दिया। किसी को साथ नहीं लिया।

ससुराल में किसी ने उनका प्रेममय स्वागत नहीं किया। सभी के मुँह फूले हुए थे। ससुरजी ने तो उन्हें पति-धर्म पर एक लम्बा उपदेश दिया। रात को जब वह भोजन करके लेटे, तो छोटी साली आकर बैठ गई और मुस्कराकर बोली– जीजाजी, कोई सुंदरी अपने रूपहीन पुरुष को छोड़ दे, उसका अपमान करे, तो आप उसे क्या कहेंगे?

सुरेश– (गम्भीर स्वर से) कुटिला !

साली– और ऐसे पुरुष को, जो अपनी रूपहीन स्त्री को त्याग दे?

सुरेश– पशु !

साली– और जो पुरुष विद्वान हो?

सुरेश– पिशाच !

साली– (हँसकर) तो मैं भागती हूँ। मुझे आपसे डर लगता है।

सुरेश– पिशाचों का प्रायश्चित तो स्वीकार हो जाता है।

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