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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


हसीना ने तेज होकर कहा- तू मुझे हया फरोश कहती है?

मैं- बेशक कहती हूँ।

सईद- और मैं बेगैरत हूँ?

मैं- बेशक ! बेगैरत ही नहीं शोबदेबाज, मक्कार पापी सब कुछ। यह अल्फाज बहुत घिनौने हैं लेकिन मेरे गुस्से के इजहार के लिए काफी नहीं।

मैं यह बातें कह रही थी कि यकायक सईद के लम्बे तगड़े, हट्टे कट्टे नौकर ने मेरी दोनो बाहें पकड़ लीं और पलक मारते भर में हसीना ने झूले की रस्सियां उतार कर मुझे बरामदे के एक लोहे के खम्भे से बाँध दिया।

इस वक्त मेरे दिल में क्या ख्याल आ रहे थे। यह याद नहीं पर मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया था। ऐसा मालूम होता था कि यह तीनों इंसान नहीं यमदूत हैं। गुस्से की जगह दिल में डर समा गया था। इस वक्त अगर कोई रौबी ताकत मेरे बन्धनों को काट देती, मेरे हाथों में आबदार खंजर दे देती तो भी तो जमीन पर बैठकर अपनी जिल्लत और बेकसी पर आंसू बहाने के सिवा और कुछ न कर सकती। मुझे ख्याल आताथा कि शायद खुदा की तरफ से मुझ पर यह कहर नाजिल हुआ है। शायद मेरी बेनमाजी और बेदीनी की यह सजा मिल रहा है। मैं अपनी पिछली जिन्दगी पर निगाह डाल रही थी कि मुझसे कौन सी गलती हुई है जिसकी यह सजा है। मुझे इस हालत में छोड़कर तीनों सूरतें कमरे में चली गयीं। मैंने समझा मेरी सजा खत्म हुई लेकिन क्या यह सब मुझे यों ही बंधा रक्खेंगे? लौडियां मुझे इस हालत में देख लें तो क्या कहें? नहीं अब मैं इस घर में रहने के काबिल ही नहीं। मैं सोच रही थी कि रस्सियां क्योंकर खोलूं मगर अफसोस मुझे न मालूम था कि अभी तक जो मेरी गति हुई है वह आने वाली बेरहमियों का सिर्फ बयाना है। मैं अब तक न जानती थी कि वह छोटा आदमी कितना बेरहम, कितना कातिल है मैं अपने दिल से बहस कर रही थी कि अपनी इस जिल्लत मुझ पर कहां तक है अगर मैं हसीना की उन दिल जलाने वाली बातों का जबाव न देती तो क्या यह नौबत, न आती? आती और जरूर आती। वह काली नागिन मुझे डसने का इरादा करके चली, थी इसलिए उसने ऐसे दिलदुखाने वाले लहजे में ही बात शुरू की थी। मैं गुस्से में आकर उसको लान तान करुँ और उसे मुझे जलील करने का बहाना मिल जाय।

पानी जोर से बरसने लगा, बौछारों से मेरा सारा शरीर तर हो गया था। सामने गहरा अंधेरा था। मैं कान लगाये सुन रही थी कि अन्दर क्या मिसकौट हो रही है मगर मेह की सनसनाहट के कारण आवाजें साफ न सुनायी देती थीं। इतने में लालटेन फिर से बरामदे में आयी और तीनों डरावनी सूरतें फिर सामने आकर खड़ी हो गयीं। अब की उस खून परी के हाथों में एक पतली सी कमची थी उसके तेवर देखकर मेरा खून सर्द हो गया। उसकी आंखों में एक खून पीने वाली वहशत एक कातिल पागलपन दिखाई दे रहा था। मेरी तरफ शरारत-भरी नजरों से देखकर बोली बेगम साहबा, मैं तुम्हारी बदजबानियों का ऐसा सबक देना चाहती हूं। जो तुम्हें सारी उम्र याद रहे। और मेरे गुरु ने बतलाया है कि कमची से ज्यादा देर तक ठहरने वाला और कोई सबक नहीं होता।

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