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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


सावन का महीना था, काली घटा छायी हुई थी, और रिमझिम बूंदें पड़ रही थीं। बगीचे पर हसद का अंधेरा और सिहास दरख्तों पर जुगनुओं की चमक ऐसी मालूम होती थी जैसे कि उनके मुँह से चिनगारियाँ जैसी आहें निकल रही हैं। मैं देर तक हसद का यह तमाशा देखती रही। कीड़े एक साथ चमकते थे और एक साथ बुझ जाते थे, गोया रोशनी की बाढ़ें छूट रही हैं। मुझे भी झूला झूलने और गाने का शौक हुआ। मौसम की हालतें हसद के मारे हुए दिलों पर भरी अपना जादू कर जाती हैं। बगीचे में एक गोल बंगला था। मैं उसमें आई और बरामदे की एक कड़ी में झूला डलवाकर झूलने लगी। मुझे आज मालूम हुआ कि निराशा में भी एक आध्यात्मिक आनन्द होता है जिसका हाल उसको नहीं मालूम जिसकी इच्छा पूर्ण है। मैं चाव से मल्हार गाने लगी। सावन विरह और शोक का महीना है। गीत में एक वियोगी हृदय की गाथा की कथा ऐसे दर्द भरे शब्दों में बयान की गयी थी कि बरबस आँखों से आँसू टपकने लगे। इतने में बाहर से एक लालटेन की रोशनी नज़र आई। सईद और हसीना दोनों चले आ रहे थे। हसीना ने मेरे पास आकर कहा-- आज यहाँ नाच-रंग की महफ़िल सजेगी और शराब के दौर चलेंगे।

मैंने घृणा से कहा- मुबारक हो।

हसीना-- बारहमासे और मल्हार की तानें उड़ेंगी। साजिन्दे आ रहे हैं।

मैं- शौक से।

हसीना-- तुम्हारा सीना हसद से चाक हो जाएगा।

सईद ने मुझ से कहा-- जुबैदा, तुम अपने कमरे में चली जाओ। यह इस वक्त आपे में नहीं है।

हसीना ने मेरी तरफ लाल-लाल आँखें निकालकर कहा-- मैं तुम्हें अपने पैरों की धूल के बराबर भी नहीं समझती।

मुझे फिर जब्त न रहा। अकड़कर बोली- और मैं क्या समझती हूँ एक कुतिया, दूसरों की उगली हुई हडि्डयाँ चिचोड़ती फिरती है।

अब सईद के भी तेवर बदले। मेरी तरफ़ भयानक आँखों से देखकर बोले-- जुबैदा, तुम्हारे सर पर शैतान तो नहीं सवार है?

सईद का यह जुमला मेरे जिगर में चुभ गया। मैं तड़प उठी। जिन होंठों से हमेशा मुहब्बत और प्यार की बातें सुनी हों, उन्हीं से यह ज़हर निकले और बिल्कुल बेकसूर! क्या मैं ऐसी नाचीज और हकीर हो गयी हूँ कि एक बाज़ारू औरत भी मुझे छेड़कर गालियाँ दे सकती है। और मेरा जबान खोलना मना! मेरे दिल में साल-भर से जो बुखार हो रहा था, वह उछल पड़ा। मैं झूले से उतर पड़ी और सईद की तरफ शिकायत-भरी निगाहों से देखकर बोली- शैतान मेरे सर पर सवार हो या तुम्हारे सर पर, इसका फ़ैसला तुम ख़ुद कर सकते हो। सईद, मैं तुमको अब तक शरीफ़ और ग़ैरतवाला समझती थी, तुम खुद कर सकते हो। बेवफाई की, इसका मलाल मुझे जरूर था, मगर मैंने सपनों में भी यह न सोचा था कि तुम गैरत से इतने खाली हो कि हया-फरोश औरत के पीछे मुझे इस तरह जलीज करोगे। इसका बदला तुम्हें खुदा से मिलेगा।

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