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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


मैंने विस्मित होकर नाम पूछा।

उत्तर मिला– मुझे उमापति नारायण कहते हैं।

मैं उठकर उनके गले से लिपट गया। यह वही कवि महोदय थे, जिनके कई प्रेम-पत्र मुझे मिल चुके थे। कुशल समाचार पूछा। पान इलायची से खातिर की।
फिर पूछा–आपका आना कैसे हुआ?

उन्होंने कहा–मकान पर चलिए, तो सब वृतांत कहूँगा। मैं आपके घर गया था। वहाँ मालूम हुआ, आप यहाँ हैं। पूछता हुआ चला आया।

मैं उमापतिजी के साथ घर चलने को उठ खड़ा हुआ। जब वह कमरे के बाहर निकल गए तो मेरे मित्र ने पूछा–यह कौन साहब हैं?

मैं– मेरे एक नए दोस्त हैं।

मित्र– जरा इनसे होशियार रहिएगा। मुझे तो उचक्के-से मालूम होते हैं।

मैं– आपका गुमान गलत है। आप हमेशा आदमी को उसकी सज-धज से परखा करते हैं। पर मनुष्य कपड़ों में नहीं, हृदय में रहता है।

मित्र– खैर, ये रहस्य की बातें तो आप जानें, मैं आपको आगाह किए देता हूँ।
मैंने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। उपापतिजी के साथ घर आया। बाजार से भोजन मँगवाया। फिर बातें होने लगीं। उन्होंने मुझे कई कविताएँ सुनायीं। स्वर बहुत सरस और मधुर था।

कविताएँ तो मेरी समझ में खाक न आयीं, पर मैंने तारीफों के पुल बाँध दिए। झूम-झूमकर वाह-वाह करने लगा, जैसे मुझसे बढ़कर कोई काव्यरसिक संसार में न होगा। संध्या को हम रामलीला देखने गये। लौटकर उन्हें फिर भोजन कराया। अब उन्होंने अपना वृत्तांत सुनाना शुरु किया। इस समय वह अपनी पत्नी को लेने के लिए कानपुर जा रहे थे। उनका मकान कानपुर ही में था। उनका विचार था कि एक मासिक-पत्रिका निकालें। उनकी कविताओं के लिए एक प्रकाशक 1,000 रु. देता था, पर उनकी इच्छा तो यह थी कि उन्हें पहले पत्रिका में क्रमशः निकालकर फिर अपनी ही लागत से पुस्तकाकार छपवाएँ। कानपुर में उनकी जमींदारी भी थी; पर वह साहित्यिक जीवन व्यतीत करना चाहते थे। जमींदारी से उन्हें घृणा थी। उनकी स्त्री एक कन्या-विद्यालय में प्रधानाध्यापिका थी। आधी रात तक बातें होती रहीं। अब उनमें से अधिकांश याद नहीं। हाँ, इतना याद है कि हम दोनों ने मिलकर अपने जीवन का एक कार्य-क्रम तैयार कर लिया था। मैं अपने भाग्य को सराहता था कि भगवान ने बैठे-बिठाए ऐसा सच्चा मित्र भेज दिया। आधी रात बीत गई, तब सोए।

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