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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


उन्हें दूसरे दिन आठ बजे की गाड़ी से जाना था। मैं जब सोकर उठा, तब सात बज चुके थे। उमापति जी मुँह-हाथ धोए तैयार बैठे थे। बोले–अब आज्ञा दीजिए, लौटते समय इधर ही से जाऊँगा। इस समय आपको कुछ कष्ट दे रहा हूँ। क्षमा कीजिएगा। मैं कल चला, तो प्रातः काल के चार बजे थे। दो बजे रात से पड़ा जाग रहा था कि कहीं नींद न आ जाय। बल्कि यों समझिए कि सारी रात जागना पड़ा। चलने की चिंता लगी हुई थी। गाड़ी में बैठा, तो झपकियाँ आने लगीं। कोट उतारकर रख दिया और लेट गया, तुरंत नींद आ गई। मुगलसराय में नींद खुली। कोट गायब! नीचे, ऊपर, चारों तरफ देखा, कहीं पता नहीं। समझ गया, किसी महाशय ने उड़ा दिया। सोने की सजा मिल गई। कोट में 50 रु. खर्च के लिए रखे थे; वे भी उसके साथ उड़ गए। आप मुझे 50 रु. दें। पत्नी को मायके से लाना है; कुछ कपड़े वगैरह ले जाने पड़ेंगे। फिर ससुराल में सैकड़ों तरह के नेग-जोग लगते हैं। कदम-कदम पर रुपये खर्च होते हैं। न खर्च कीजिए, तो हँसी हो। मैं इधर से लौटूँगा तो देता जाऊँगा।

मैं बड़े संकोच में पड़ा गया। एक बार पहले भी धोखा खा चुका था। तुरंत भ्रम हुआ, अबकी फिर वही दशा न हो, लेकिन शीघ्र ही मन के इस अविश्वास पर लज्जित हुआ। संसार में सभी मनुष्य एक-से नहीं होते। यह बेचारे इतने सज्जन हैं। इस समय संकट में पड़ गए हैं। और मैं मिथ्या संदेह में पड़ा हुआ हूँ घर में आकर पत्नी से कहा–तुम्हारे पास कुछ रुपये तो नहीं है?

स्त्री– क्या करोगे?

मैं– मेरे जो मित्र कल आए हैं, उनके रुपये किसी ने गाड़ी में चुरा लिये। उन्हें स्त्री को विदा कराने ससुराल जाना है। लौटती बार देते जायँगे।

पत्नी ने व्यंग्य से कहा– तुम्हारे यहाँ जितने मित्र आते हैं, सब तुम्हें ठगने ही आते हैं। सभी संकट में पड़े रहते हैं। मेरे पास रुपये नहीं हैं।

मैंने खुशामद करते हुए कहा– लाओ दे दो, बेचारे तैयार खड़े हैं। गाड़ी छूट जाएगी।
स्त्री– कह दो, इस समय घर में रुपये नहीं हैं।

मैं– यह कह देना आसान नहीं है। इसका अर्थ तो यह है कि मैं दरिद्र ही नहीं, मित्र-हीन भी हूँ, नहीं तो क्या मेरे किए 50 रु. का इंतजाम नहीं हो सकता। उमापति को कभी विश्वास न आएगा कि मेरे पास रुपये नहीं हैं। इससे वही अच्छा हो कि साफ-साफ यह कह दिया जाय कि ‘हमको आप पर भरोसा नहीं है, हम आपको रुपये नहीं दे सकते।’ कम-से-कम अपना पर्दा तो ढका रह जाएगा।

श्रीमतीजी ने झुँझलाकर संदूक की कुँजी मेरे आगे फेंक दी और कहा- तुम्हें जितनी बहस करनी आती है, उतना कहीं आदमियों को परखना आता तो अब तक आदमी हो गए होते! ले जाओ, दे दो। किसी तरह तुम्हारी मरजाद तो बनी रहे। लेकिन उधार समझकर मत दो, यह समझ लो कि पानी में फेंके देते हैं।

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