कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 7 प्रेमचन्द की कहानियाँ 7प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग
दोपहर का समय था और जेठ का महीना। खपरैल का घर भट्ठी की भाँति तपने लगा। खस की टट्टियों और तहखानों में रहने वाले राजकुमार का चित्त गरमी से इतना बेचैन हुआ कि वह बाहर निकल आये और सामने के बाग में जा कर एक घने वृक्ष की छाँव में बैठ गये। सहसा उन्होंने देखा, चंदा नदी से जल की गागर लिये चली आ रही है। नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुआ सूर्य। लू से देह झुलसी जाती थी। कदाचित् इस समय प्यास से तड़पते हुए आदमी की भी नदी तक जाने की हिम्मत न पड़ती। चंदा क्यों पानी लेने गयी थी ? घर में पानी भरा हुआ है। फिर इस समय वह क्यों पानी लेने निकली ? कुँवर दौड़कर उसके पास पहुँचे और उसके हाथ से गागर छीन लेने की चेष्टा करते हुए बोले- मुझे दे दो और भाग कर छाँह में चली जाओ। इस समय पानी का क्या काम था ?
चंदा ने गागर न छोड़ी। सिर से खिसका हुआ अंचल सँभालकर बोली- तुम इस समय कैसे आ गये ? शायद मारे गरमी के अंदर न रह सके ?
कुँवर- मुझे दे दो, नहीं तो मैं छीन लूँगा।
चंदा ने मुस्करा कर कहा- राजकुमारों को गागर ले कर चलना शोभा नहीं देता।
कुँवर ने गागर का मुँह पकड़ कर कहा- इस अपराध का बहुत दंड सह चुका हूँ। चंदा, अब तो अपने को राजकुमार कहने में भी लज्जा आती है।
चंदा- देखो, धूप में खुद हैरान होते हो और मुझे भी हैरान करते हो। गागर छोड़ दो। सच कहती हूँ, पूजा का जल है।
कुँवर- क्या मेरे ले जाने से पूजा का जल अपवित्र हो जाएगा ?
चंदा- अच्छा भाई, नहीं मानते, तो तुम्हीं ले चलो। हाँ, नहीं तो।
कुँवर गागर ले कर आगे-आगे चले। चंदा पीछे हो ली। बगीचे में पहुँचे, तो चंदा एक छोटे-से पौधे के पास रुक कर बोली - इसी देवता की पूजा करनी है, गागर रख दो। कुँवर ने आश्चर्य से पूछा- यहाँ कौन देवता है, चंदा ?
मुझे तो नहीं नजर आता।
चंदा ने पौधे को सींचते हुए कहा- यही तो मेरा देवता है।
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